tag:blogger.com,1999:blog-16180195374199742262024-03-14T02:29:17.109+05:30मैं और मेरी सोच..."सुन्दरता" एक ऐसा चित्र है , जिसे तुम आँख बंद करने के बाद भी देख लेते हो और कान बंद करने के बाद भी सुन लेते हो...ठीक उसी तरह कल्पनाओं की धरती अपनी हो जाती है, जब हमारे हाथ मे कलम हो तो...सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.comBlogger42125tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-58931910861059719722008-09-13T17:10:00.005+05:302009-04-23T21:48:52.997+05:30मुश्किल है...मुश्किल है, कविता लिखना<br />जागते हुए सोना,<br />सोते हुए जागना<br />सपनों के मायावी गाँव में<br />किसी अपने को ढूंढ़ना !<br />यायावर मन को भ्रम की<br />ऊँगली थमाना ..........<br /><span class="">बहुत मुश्किल है !</span><br /><span class="">दर्द की एक-एक बूंदों को</span><br /><span class="">बड़ी सावधानी और नरमी से इकठ्ठा करके</span><br /><span class="">अक्षरों के धागे में तन्मयता से पिरोना</span><br /><span class="">मेरे बन्धु !</span><br /><span class=""> बड़ी मुश्किल है !</span><br />कितना त्रासदाई है<br />करवटें बदलती ज़िन्दगी का सामना करना<br />उसकी आंखों की भाषा पढ़ते हुए<br />जी चाहे न चाहे,<br />आगे बढ़कर हाथ मिलाना<br />चेहरे को सहज बनाकर,<br />होठों पर मुस्कराहट लाना<br />ओफ़्फ़ !<br />बड़ी मुश्किल है !<br />बड़ी मुश्किल है मेरे पथबंधु !<br /><span class="">गुजरते वक्त की पदचाप सुनना</span> ,<br /><span class="">और संजीदगी से सोचने पर मजबूर होना -</span><br /><span class="">अब ये पल कभी वापस नहीं आनेवाला</span><br /><span class="">भावनाओं के बहाव पर रोक लगाना</span><br /><span class="">दाता से अतिरिक्त शक्ति की याचना करना</span><br /><span class="">आंखों के पानी को </span><br /><span class="">ऊँगली के पोर से झटक देना</span><br /><span class="">चलती हुई बातों की कड़ी को थामकर</span><br /><span class="">अचानक बोल उठना -</span><br />हाँ, तो क्या हुआ ?<br />आत्मा की सूरत पहचानते हो<br />तो समझ जाओगे मेरे सहचर ,<br />बड़ी मुश्किल है !सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-74138921959322969612008-09-10T21:18:00.007+05:302008-09-12T17:16:28.342+05:30निरी मूर्खता !!<a href="http://4.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SMpWTHYPK3I/AAAAAAAAAH0/MAw2ATpcf7c/s1600-h/disco.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5245099602424572786" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://4.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SMpWTHYPK3I/AAAAAAAAAH0/MAw2ATpcf7c/s200/disco.jpg" border="0" /></a> <div><span class=""></span></div><br /><div>सुबह से ही मन उचाट हो गया है......उसका बयान व्यर्थ है !मेरे मन में प्रश्न उठता है - क्या मैं मूर्ख हूँ या समय से पीछे ? खैर जो भी हूँ , अभी मन को समझाने के क्रम में हूँ और बस यूँ ही लिख रही हूँ । यह भी एक प्रयास है -<br /><br />बदलते क्रम की धुरी में<br />गाँव शहराना होता गया<br />नगर महानगर की शक्ल लेने को<br />उतावले हो गए !<br /><span class="">सोच बदल गई,विचार बदल गए </span><br /><span class="">लोग-बाग ऐसे बदले-</span><br /><span class="">कि पुरानी पहचान विस्मृति के धुंध में खो गई !</span><br />आधुनिकता की अंधी दौड़ में डूबा व्यक्ति-<br />कभी अपने अन्दर झाँकने की चेष्टा नहीं करता<br />यह सोच भी अन्दर से सर नहीं उठाती<br />कि, वह कितना बदल गया !<br />आत्मा के कल्पवृक्ष अदृश्य होते जा रहे हैं<br />अब तो वैसी आंधी भी नहीं आती,<br />जो भ्रम की चादर उड़ा दे....<br /><span class="">इस गहमा</span>-गहमी के यांत्रिक युग में<br />रिश्तों कि बातें सोचना या करना<br />प्रागैतिहासिक काल पर बातें करना जैसा हो गया<br />या फिर निरी मूर्खता !!!!!!!!!!</div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-48187235409795087542008-09-08T17:07:00.004+05:302008-09-15T22:10:13.908+05:30प्रश्नों के आईने में....- ज़िन्दगी के मेले में - 'अपनी खुशी न आए थे............' पर आ गए। आरा शहर की एक संकरी सी गली के तिमंजिले मकान में मेरा जन्म २८ अगस्त को हुआ था। समय के चाक पर निर्माण कार्य चलता रहा। किसी ने बुलाया 'तरु' (क्योंकि माता-पिता की इकलौती संतान होने के नाते मैं उनकी आंखों का तारा थी)। स्कूल (पाठशाला) में नामांकन हुआ 'सरस्वती' और मेरी पहचान - सरू,तरु में हुई। प्रश्नों के आईने में ख़ुद को देखूं और जाँचूं तो स्पष्टतः मुझे यही कहना होगा -<br />मेरे मन के करीब मेरी सबसे अच्छी दोस्त मेरी माँ थी । खेल-खिलौने , साथी तो थे ही ,पर मैं 'उसे' नहीं भूल सकी, जिसने सबसे पहले मेरे मन को रौशन किया - वह था , मेरे कमरे का गोलाकार रोशनदान । सूरज की पहली किरणें उसी से होकर मेरे कमरे के फर्श पर फैलती थीं । किरणों की धार में अपना हाथ डालकर तैरते कणों को<br />मुठ्ठी में भरना मेरा प्रिय खेल था । यह खेल मेरे अबोध मन के अन्दर एक अलौकिक जादू जगाता था ।<br />मेरी आँखें बहुत सवेरे पड़ोस में रहनेवाली नानी की 'पराती' से खिलती थी। नानी का क्रमवार भजन मेरे अन्दर अनोखे सुख का संचार करता था । मुंह अंधेरे गलियों में फेरा लगनेवाले फ़कीर की सुमधुर आवाज़ इकतारे पर - ' कंकड़ चुन-चुन महल बनाया<br />लोग कहे घर मेरा है जी प्यारी दुनिया<br />ना घर मेरा ना घर तेरा , चिडिया रैन बसेरा जी<br />प्यारी दुनिया ......' । मेरे बाल-मन में किसी अज्ञात चिंतन का बीजारोपण करती गई। फ़कीर की जादुई आवाज़ के पीछे - पीछे मेरा मन दूर तक निकल जाता था। मेरे कुछ प्रश्नों पर मेरे माँ , बाबूजी गंभीर हो जाते थे। मेरा बचपन शायद वह छोटी चिडिया बन जाता था,जो अपनी क्षमता से अनभिज्ञ नभ के अछोर विस्तार को माप लेना चाहती थी। मुझे लगता था सूरज का रथ मेरी छत पर सबसे पहले उतरता है। चाँद अपनी चांदनी की बारिश मेरे आँगन में करता है। तभी मैं अपने साथियों के साथ 'अंधेरिया-अंजोरिया'का खेल खेलते हुए मुठ्ठी में चांदनी भर-भर कर फ्रॉक की जेब में डालती थी और खेल ख़त्म होने पर उस चांदनी को निकालकर माँ के गद्दे के नीचे छुपा देती थी....<br />मैंने पढ़ना शुरू किया तो बहुत जल्दी ही पुस्तकों ने मुझे अपने प्रबल आकर्षण में मुझे बाँधा। इस प्रकार कि देखते-ही-देखते मेरी छोटी सी आलमारी स्कूली किताबों के अलावा और किताबों से भर गई। 'बालक,चंदामामा,सरस्वती,' आदि पत्रिकाओं के अलावा मैं माँ के पूजा घर से 'सुख-सागर,प्रेम-सागर,रामायण का छोटा संस्करण ' लेकर एकांत में बैठकर पढ़ती थी। राजेंद्र बाबू की आत्मकथा (मोटी पुस्तक)मैंने बचपन में ही पढ़ी थी। आलमारी खोलकर पुस्तकें देखना , उन्हें करीने से लगाना ,उन पर हाथ फेरना मुझे अत्यन्त सुख पहुंचाता था । शायद यही वजह रही होगी या मेरे घर का एकाकीपन कि मेरे मन को कोई तलाश थी। कल्पना के ताने-बाने में कोई उद्वेग भरता था,छोटे से मन कि छोटी सी दुनिया में कोई अनजानी उदासी चक्कर काटती थी। मन के कोने में रंगीन तितली पालनेवाली तरु को किसकी खोज थी?-शायद रिश्तों की। और इसी खोज ने मेरी कल्पना को पंख दिए ,जो मैं देखती थी उससे परे जाकर भी सोचती थी।<br />मैं जिस मुहल्ले में रहती थी वहां हर जाति और तबके के लोग थे। बड़े-छोटे का भेदभाव क्या था,कितना था - इससे परे चाचा,भैया,काका का ही संबोधन मैं जानती थी। कई मौके मेरी आंखों के आगे आए - रामबरन,रामजतन काका को गिडगिडाते देखा -' मालिक,सूद के ५०० तो माफ़ कर देन,जनम-जनम जूतों की ताबेदारी करूँगा'......बिच में टपक कर तरु बोल उठती - 'छोड़ दीजिये बाबूजी, काका की बात मत टालें' और तरु का आग्रह खाली नहीं जाता।<br />कुछ कर गुजरने की खुशी को महसूस करती तरु को लगता कोई कह रहा है, ' तरु - तू घंटी की मीठी धुन है,धूप की सुगंध,पूजा का फूल ,मन्दिर की मूरत.....मेरे घर आना तेरी राह देखूंगा....' कौन कहता था यह सब?रामबरन काका ,रामजतन काका , बिलास भैया , या रामनगीना .........<br />अपनी ही आवाज़ से विस्मय - विमुग्ध हो जाती थी तरु। खाली-खाली कमरों में माँ माँ पुकारना और ख़ुद से सवाल करना,साथ-साथ कौन बोलता है? जिज्ञासु मन ने जान लिया यह प्रतिध्वनि है। छोटी तरु के मुंह से प्रतिध्वनि शब्द सुनकर उसके मास्टर जी अवाक रह गए थे और माथे पर हाथ रखा था ' तू नाम करेगी ' । पर किसने देखा या जाना था सिवा तरु के कि खाली-खाली कमरों से उठता सोच का सैलाब उसे न जाने कहाँ-कहाँ बहा ले जाता है। फिर वह यानी मैं - अपने एकांत में रमना और बातें करना सीख गई,शायद इसीका असर था कि उम्र के २५ वे मोड़ पर आकर मेरी कलम ने लिखा -<br />"शून्य में भी कौन मुझसे बोलता है,<br />मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ<br />किसकी आँखें मुझको प्रतिपल झांकती हैं<br />जैसे कि चिरकाल से पहचानती हैं<br />कौन झंकृत करके मन के तार मुझसे बोलता है<br />मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ.........."<br />धरती से जुड़े गीत-संगीत कि दुनिया मेरे चारों ओर थी,इसलिए मुझे गीत-संगीत से गहरा लगाव था,उसके प्रति प्रबल आकर्षण था।<br /><span class="">चिडियों का कलरव , घर बुहारती माँ के झाडू कि खुर-खुर, रामबरन काका के घर से आती गायों के गले की</span>घंटियों की टूनन -टूनन , काकी के ढेंकी चलाने की आवाज़ ,नानी की पराती,गायों का रम्भाना,चारा काटने की खटर -खुट-खट ,बंसवाड़े से आती हवा की सायं-सानी (सीटियों जैसी)....... संगीत ही संगीत था मेरे चारों ओर। वकील चाचा के घर से ग्रामोफोन पर के.सी.डे और सहगल की आवाज़ बराबर आती। सहगल का यह गीत आज भी याद आता है तो अपनी सोच पर हँसी आ जाती है , 'करेजवा में हाय राम लग गई चोट ' , सुनकर मुझे दुःख होता था किकिसने इसे इस प्रकार ज़ोर से मारा कि बराबर गाता है लग गई चोट ! यह बात तो बचपन की थी,पर बरसों बाद जाना कि चोट जो दिल पर लगती है,वह जाती नहीं। दिनकर जी के शब्दों में "आत्मा में लगा घाव जल्दी नहीं सूखता"।<br />इन्ही भावनाओं में लिपटी मैं घर गृहस्थी के साथ १९६१ में कॉलेज की छात्रा बनी । हिन्दी प्रतिष्ठा की छात्रा होने के बाद कविवर पन्त की रचनाएं मेरा प्रिय विषय बनीं । ६२ में साथियों ने ग्रीष्मावकाश के पहले सबको टाइटिल दिया ।कॉमन रूम में पहुँची तो सबों ने समवेत स्वर में कहा ' लो, पन्त की बेटी आ गई'...... अब ना मेरी माँ थी और ना बाबूजी । साथियों ने मुझे पन्त की बेटी बनाकर मेरी भावनाओं को पिता के समीप पहुँचा दिया। उस दिन कॉलेज से घर जाते हुए उड़ते पत्तों को देखकर होठों पर ये पंक्तियाँ आई ," कभी उड़ते पत्तों के संग,मुझे मिलते मेरे सुकुमार"......<br /><span class="">"उठा तब लहरों से कर मौन</span><br /><span class="">निमंत्रण देता मुझको कौन"..........</span><br /><span class="">अगले ही दिन मैंने पन्त जी को पत्र लिखा , पत्रोत्तर इतनी जल्दी मिलेगा-इसकी उम्मीद नहीं थी। कल्पना ऐसे साकार होगी,ये तो सोचा भी नहीं था.....'बेटी' संबोधन के साथ उनका स्नेह भरा शब्द मुझे जैसे सपनों की दुनिया में ले गया। अब मैं कुछ लिखती तो उनको भेजती थी,वे मेरी प्रेरणा बन गए । वे कभी अल्मोडा भी जाते तो वहां से मुझे लिखते.......हमारा पत्र-व्यवहार चलता रहा। पिता के प्यार पर उस दिन मुझे गर्व हुआ , जिस दिन प्रेस से आने पर 'लोकायतन' की पहली प्रति मेरे पास भेजी,जिस पर लिखा था 'बेटी सरस्वती को प्यार के साथ'</span><br />........<br /><span class="">M.A में नामांकन के बाद ही मेरे साथ बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई,अचानक ही हम भंवर में डूब गए - इसके बाद ही हम इलाहबाद गए थे। पिता पन्त जब सामने आए तो मुझे यही लगा , जैसे हम किसी स्वर्ग से उतरे देवदूत को देख रहे हैं। उनका हमें आश्वासित करना,एक-एक मृदु व्यवहार घर आए कुछ साहित्यकारों से मुझे परिचित करवाना,मेरी बेटी को रश्मि नाम देना, और बच्चों के नाम सुंदर पंक्तियाँ लिखना और मेरे नाम एक पूरी कविता....</span><br /><span class="">जिसके नीचे लिखा है 'बेटी सरस्वती के प्रयाग आगमन पर' यह सबकुछ मेरे लिए अमूल्य धरोहर है। उन्होंने मुझे काव्य-संग्रह निकालने की सलाह भी दी,भूमिका वे स्वयं लिखते,पर यह नहीं हो पाया।</span><br /><span class="">अंत में अपने बच्चों के दिए उत्साह और लगन के फलस्वरूप , उनके ही सहयोग से मेरा पहला काव्य-संग्रह "नदी पुकारे सागर" प्रकाशित हुआ। उस संग्रह का नामकरण मेरे परम आदरनिये गुरु भूतपूर्व अध्यक्ष एवं प्रोफेसर डॉ पूर्णेंदु ने किया....भूमिका की जगह उन्होंने लिखा " इन रचनाओं के बीच से गुजरते हुए...." मैं हमेशा आभारी रहूंगी-</span><br /><span class="">" कौन से क्षण थे वे </span><br /><span class="">जो अपनी अस्मिता लिए </span><br /><span class="">समस्त आपाधापी को परे हटा</span><br /><span class="">अनायास ही अंकित होते गए</span><br /><span class="">मैं तो केवल माध्यम बनी............!</span>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-58863882645988587962008-09-05T12:20:00.003+05:302008-09-05T20:59:41.809+05:30तुम्हारे लिए....<a href="http://4.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SMFQSh8mH1I/AAAAAAAAAFs/bCnI2AACw3w/s1600-h/bird_blue_sky_353x470_334x470.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5242559720516362066" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://4.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SMFQSh8mH1I/AAAAAAAAAFs/bCnI2AACw3w/s200/bird_blue_sky_353x470_334x470.jpg" border="0" /></a><br /><div>सपने देखो तो ज़रूर<br />समझो सपनों की भाषा<br />निश्चित तुमको मिलेगी मंजिल<br />पूरी होगी आशा !<br />सपने साथ में हैं गर तेरे<br />तू मजबूर नहीं है<br />तूफानों से मत घबराना<br />मंजिल दूर नहीं है !<br />बड़े पते की बात है प्यारे<br />घबराकर मत रोना<br />आग में तपकर ही जो निखरे<br />है वही सच्चा सोना !<br />बुरा नहीं होता है प्यारे<br />आंखों का सपनाना<br />सपने सच भी होते हैं<br />यह मैंने भी है जाना !<br />सपने ही थे साथ सफर में<br />और तेरा हमसाया<br />कतरे की अब बात भुला दे<br />दरिया सामने आया !<br />नहीं असंभव बात ये कोई<br />फिर हो नई कहानी<br />तुम बन जाओ एक और<br />धीरू भाई अम्बानी !</div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-86827991180028561562008-08-27T21:05:00.003+05:302008-08-27T21:20:31.626+05:30मेरा मन - एक परिचय !<a href="http://4.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SLV3sTQbMRI/AAAAAAAAAFk/8tAAv1hrprY/s1600-h/rain-drops-solar-system.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5239225344482554130" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://4.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SLV3sTQbMRI/AAAAAAAAAFk/8tAAv1hrprY/s200/rain-drops-solar-system.jpg" border="0" /></a><br /><div>मेरा मन, एक पुस्तक है ,<br />जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर -<br />तुम्हीं रेखांकित हो<br />अक्षर-अक्षर में -<br />तुम्हारी ही छवि बोलती है !<br />तुम्ही छंद हो, तुम्ही लय हो<br />यह पुस्तक, तुम्हारा समन्वय है !<br />शरीर तो एक आवरण है<br />जिसे प्यार और करुणा के रंग से<br />सँवारने का अथक प्रयास करती हूँ ......<br />ताकि कभी तुम स्वतः<br />पुस्तक खोलने पर बाध्य हो जाओ !<br />फिर.............<br />उम्मीद है, तुम्हारी आंखों की नमी<br />स्वाति के बूंद-सी<br />- मेरे माथे पर टपकेगी !</div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-11035347135613438772008-08-23T13:21:00.002+05:302008-08-23T13:42:11.454+05:30बादलों वाली लड़की....<a href="http://2.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SK_GJ2Lho5I/AAAAAAAAAFc/G34z82f8_UE/s1600-h/dreams.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5237622764120155026" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://2.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SK_GJ2Lho5I/AAAAAAAAAFc/G34z82f8_UE/s200/dreams.jpg" border="0" /></a><br /><div>आपने भी देखा होगा -</div><br /><div><span class="">मक्खन </span>की डली -सी उस लड़की को</div><br /><div>जो बादलों के बीच दौड़ती है</div><br /><div>खरगोशों के झुंड से खिलवाड़ करती है</div><br /><div>स्याह मखमली भालुओं के बीच विचरण करती है</div><br /><div>लुकाछिपी का खेल खेलती है</div><br /><div>फिर अचानक पलक झपकते ही -</div><br /><div>शिखर पर पहुँच जाती है</div><br /><div>और कभी आंखों से कभी हाथ से </div><br /><div>इशारा करती है -</div><br /><div>'आकाश के आँगन में आओ</div><br /><div>हमारी दुनिया को जानो</div><br /><div>हमारे साथ खेलो -</div><br /><div>निःशंक, निर्द्वंद !'</div><br /><div>इस निश्छल अनुरोध को मानकर</div><br /><div>हमें भी उसे निमंत्रण भेजना चाहिए</div><br /><div>'तुम धरती पर आकर हमारी दुनिया देखो और जानो '</div><br /><div>शायद इस मेल-जोल से </div><br /><div>धरती - आकाश का काल्पनिक मिलन </div><br /><div>साकार हो जाए</div><br /><div>आनेवाले कल को कोई नया सृजन हो !</div><br /><div>पर क्या हम इस बात का दावा कर सकते हैं</div><br /><div>की बादलों वाली मासूम लड़की</div><br /><div>- इंसानी रंगत वाली धरती पर</div><br /><div>उसी प्रकार दौडेगी,खेलेगी</div><br /><div>जैसे आकाश के आँगन में होती है</div><br /><div>- निःशंक, निर्द्वंद !?</div><br /><div></div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-73284940955643269072008-08-20T16:19:00.003+05:302008-08-20T16:38:22.954+05:30कुछ साज-तुम्हारे लिए......(१)<br />डूबते चाँद का पता पूछो<br />एक मुसाफिर यहीं पे सोया है<br />नभ की खिड़की से सर टिका करके<br />जाने कौन सारी रात रोया है!<br /><br />(2 )<br />तेरा ख्याल मेरे साथ लगकर सोया है<br />थपकियाँ देकर कहानी सुनाई है<br />लोरी गाकर चादर उढ़ाया है<br />पलकों और गालों को आँचल से पोंछा है<br />होठों पर संजीवनी रख दी है<br />शायद थोडी देर पहले यह रोया है<br />तेरा ख्याल साथ लगकर सोया है.....<br /><br />(३)<br />जा रहा किस ओर तू<br />कुछ बोल पंछी<br />किस पिपासा को लिए ओ बावरा<br />दर्द जब इंसान हर पता नहीं<br />क्या हरेंगे फिर ये चंचल धवल बादल?<br /><br />(४)<br />आओ आज की रात<br />हम दरवाजों को खुला छोड़ दें<br />खिड़कियों को बंद मत करें<br />हमारी अधीरता वह भांप ले<br />और लौट आए.............सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-2583411568613657142008-08-09T14:29:00.005+05:302008-08-11T17:05:43.794+05:30नन्हे पैरों के नाम.......<a href="http://3.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SJ1h-LXHtCI/AAAAAAAAAFU/RT7g9RHDWdc/s1600-h/2326336558_54f85f4836.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5232446062903931938" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://3.bp.blogspot.com/_JN_7j_qrRFs/SJ1h-LXHtCI/AAAAAAAAAFU/RT7g9RHDWdc/s200/2326336558_54f85f4836.jpg" border="0" /></a><br /><div>( १ )</div><br /><div>हम हैं मोर,हम हैं मोर</div><br /><div>कूदेंगे , इतरायेंगे -</div><br /><div>पंखों का साज बजायेंगे,</div><br /><div>आपका मन बहलाएँगे ।</div><br /><div>हम है मोर,हम हैं मोर</div><br /><div>नभ में बादल छाएंगे,</div><br /><div>हम छम-छम नाच दिखायेंगे</div><br /><div>आपको नाच सिखायेंगे ।</div><br /><div>हम हैं गीत,हम हैं गीत</div><br /><div>दरिया के पानी का</div><br /><div>मौसम की रवानी का</div><br /><div>आपको गाना सिखायेंगे ।</div><br /><div>हम हैं धूप,हम हैं छांव</div><br /><div>आगे बढ़ते जायेंगे</div><br /><div>कभी नहीं घबराएंगे</div><br /><div>आपको जीना सिखायेंगे ।</div><br /><div></div><br /><div>( २ )</div><br /><div>मैं हूँ एक परी</div><br /><div>और मेरा प्यारा नाम है गुल</div><br /><div>गर चाहूँ तो तुंरत बना दूँ</div><br /><div>शूल को भी मैं फूल !</div><br /><div>चाहूँ तो पल में बिखेर दूँ</div><br /><div>हीरे,मोती ,सोना</div><br /><div>पर इनको संजोने में तुम</div><br /><div>अपना समय न खोना !</div><br /><div>अपना ' स्व ' सबकुछ होता है</div><br /><div>' स्व' की रक्षा करना</div><br /><div>प्यार ही जीवन-मूलमंत्र है</div><br /><div>प्यार सभी को करना !</div><br /><div></div><br /><div>( ३ )</div><br /><div>मैं हूँ रंग-बिरंगी तितली</div><br /><div>सुनिए आप कहानी,</div><br /><div>मैं हूँ सुंदर,मैं हूँ कोमल</div><br /><div>मैं हूँ बड़ी सयानी </div><br /><div>इधर-उधर मैं उड़ती - फिरती ,</div><br /><div>करती हूँ मनमानी ! मैं हूँ.................</div><br /><div>फूलों का रस पीती हूँ</div><br /><div>मस्ती में मैं जीती हूँ</div><br /><div>रस पीकर उड़ जाती हूँ</div><br /><div>हाथ नहीं मैं आती हूँ !</div><br /><div>मैं हूँ रंग-बिरंगी तितली........</div><br /><div></div><br /><div>( ४ )</div><br /><div>बिल्ली मौसी,बिल्ली मौसी</div><br /><div>कहो कहाँ से आती हो</div><br /><div>घर-घर जाकर चुपके-चुपके</div><br /><div>कितना माल उडाती हो ।</div><br /><div>नहीं सोचना तुम्हे देखकर</div><br /><div>मैं तुमसे डर जाती हूँ</div><br /><div>म्याऊं- म्याऊं सुनकर तेरी</div><br /><div>अन्दर से घबराती हूँ !</div><br /><div>चाह यही है मेरी मौसी</div><br /><div>जल्दी तुमसे कर लूँ मेल</div><br /><div>फिर हमदोनों भाग-दौड़ कर </div><br /><div>लुकाछिपी का करेंगे खेल !</div><div></div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-50217390970003788542008-08-04T19:43:00.003+05:302008-08-04T19:52:56.453+05:30डर कैसा ?<a href="http://bp0.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SJcQkSEC6zI/AAAAAAAAAFM/ilm1r-IAtvI/s1600-h/blogger+(18).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5230667707724262194" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp0.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SJcQkSEC6zI/AAAAAAAAAFM/ilm1r-IAtvI/s200/blogger+(18).jpg" border="0" /></a><br /><div>जी चाहता है -</div><br /><div>रेशमी सपनों के पंख पैरों में बाँध लूँ</div><br /><div>और उड़ जाऊँ</div><br /><div>निस्सीम आकाश का विस्तार मापने</div><br /><div>पर अगले ही क्षण डर लगता है !</div><br /><div>आँधियों का क्या भरोसा ?</div><br /><div>समय का एक हल्का इंगित होते ही</div><br /><div>नभ का कोना - कोना </div><br /><div>धूल - गर्द गुबार से ढँक जाएगा</div><br /><div>मेरे सारे मनसूबे दिशाहीन हो जायेंगे !</div><br /><div>पर तेरे चरण चिन्ह , मेरे हौसले को बल देते हैं</div><br /><div>पूरे ब्रह्माण्ड में तू विद्यमान है</div><br /><div>साथ-साथ चलता है , प्यार करता है</div><br /><div>तो फिर , डर कैसा ?</div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-42750642795475297932008-08-01T16:41:00.006+05:302008-08-01T16:59:32.985+05:30ज़माना बदल गया ..........<a href="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SJLzB-Zew3I/AAAAAAAAAFE/JG2gBVkVXlU/s1600-h/blogger+(73).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5229509332585857906" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SJLzB-Zew3I/AAAAAAAAAFE/JG2gBVkVXlU/s200/blogger+(73).jpg" border="0" /></a><br /><div><a href="http://bp0.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SJLyb2TpsaI/AAAAAAAAAE8/IV-wv--5Ea4/s1600-h/blogger+(7).jpg"></a><br /><div>अब कोई नहीं कहता-</div><div>मैं वाणभट्ट होता तो 'कादम्बरी' लिखता</div><div>जयदेव होता तो 'गीत गोविन्द' लिखता</div><div>जायसी होता तो 'पद्मावत' लिखता....</div><div>काश ! कभी तू भूले से ही सही,</div><div>मेरे आँगन आ जाती</div><div>मैं हरसिंगार के फूल बनकर </div><div>तुम्हारा आँचल फूलों से भर देता !</div><div>कभी तुम कहती- तुम्हे कौन सा रंग पसंद है</div><div>मैं उसी रंग के फूलों का बाग़ लगा देता</div><div>उसके बीच खड़ी होकर तुम वनदेवी सी दिखती !</div><div>मैं क़यामत के दिन तक.............................................</div><div>जैसे शब्दों की गूंज ख़त्म हो गई</div><div>इसलिए लगता है, ज़माना बदल गया !</div></div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-15795183301846698472008-07-29T17:15:00.004+05:302008-07-29T17:33:58.622+05:30प्रकोष्ठ का द्वार खोलो.........<a href="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SI8GdUxnTlI/AAAAAAAAAE0/hxmN8oP5SpM/s1600-h/20041231006612909.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5228404793263214162" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SI8GdUxnTlI/AAAAAAAAAE0/hxmN8oP5SpM/s200/20041231006612909.jpg" border="0" /></a><br /><div>पोर-पोर में थकान लिए,<br />शरीर और मन दोनों से हार कर<br />तुम्हारी देहरी पर बैठी हूँ<br />प्रकोष्ठ का द्वार खोलो.....<br />तमस में घिरी हूँ,कुछ दिखाई नहीं पड़ता<br />कहाँ जाऊं, किधर जाऊं के उलझन में घिरी हूँ<br /><span class="">प्रभु कृपा करो</span><br /><span class="">अपने प्रभामंडल का आलोक प्रसारित करो</span><br /><span class="">प्रकोष्ठ ................</span><br /><span class="">मेरे विनम्र निवेदन की अर्जी को</span><br /><span class="">किसी पत्थर जड़ी मंजुषा में मत डालो</span></div><br /><div>पढने की बारी आने तक</div><br /><div>मैं देहरी पर बैठे-बैठे दम तोड़ दूंगी</div><br /><div>मुझे तुम्हारी समीपता चाहिए</div><br /><div>मेरा आग्रह मानकर मुझे अपना लो</div><br /><div>प्रकोष्ठ का..........</div><br /><div>बैठ गई हूँ तो स्वयं उठ भी नहीं सकती</div><br /><div>यह मेरी बेबसी और लाचारी है</div><br /><div>तुम स्वयं 'उसकी' तरह तत्परता से आकर</div><br /><div>मुझे बांहों में भरकर उठा लो</div><br /><div>भीतर ले जाकर मेरे सर पर हाथ रखो,सुकून दो</div><br /><div>और इंगित करो-</div><br /><div>कहीं किसी देहरी पर बैठने की ज़रूरत नहीं </div><br /><div>तुम्हारा विश्राम स्थल यह रहा</div><br /><div>मैं जानती हूँ, तुम यह करोगे</div><br /><div>प्रकोष्ठ का द्वार खोलो ! </div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-56089219955325809682008-07-25T22:37:00.003+05:302008-07-25T22:46:03.154+05:30दाता !<a href="http://bp2.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SIoKNEQum1I/AAAAAAAAAEs/RObJ55iNMIQ/s1600-h/blogger+(34).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5227001537115364178" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp2.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SIoKNEQum1I/AAAAAAAAAEs/RObJ55iNMIQ/s200/blogger+(34).jpg" border="0" /></a><br /><div>हलकी नींद के आगोश से रात १२.१५ में उठकर लिखने पर विवश सी हो गई.......</div><br /><div></div><br /><div>शायद मैंने हाथ बढाये थे-</div><br /><div>दर्द का दान देकर तुमने मुझे विदा कर दिया !</div><br /><div>यह दर्द, निर्धूम दीपशिखा के लौ की तरह</div><br /><div>तुम्हारे मन्दिर में अहर्निश जलता है।</div><br /><div>कौन जाने, कल की सुबह मिले ना मिले</div><br /><div>अक्सर तुमसे कुछ कहने की तीव्रता होती है</div><br /><div>पर.......... सोचते ही सोचते,</div><br /><div>वृंत से टूटे सुमन की तरह</div><br /><div>तुम्हारे चरणों में अर्पित हो जाती हूँ !</div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-51758407703216738812008-07-16T11:03:00.004+05:302008-07-16T11:54:40.255+05:30मुक्ति??????<a href="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SH2S9WZxnHI/AAAAAAAAAEk/U75N7PPwDQg/s1600-h/blog+pics+(17).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5223492725503007858" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SH2S9WZxnHI/AAAAAAAAAEk/U75N7PPwDQg/s200/blog+pics+(17).jpg" border="0" /></a><br /><div><span class="">मेरे</span> पास चिट्ठियों का अम्बार था,</div><div>आदतन,जिन्हें संभाल कर रखती थी</div><div>गाहे-बगाहे उलटते-पुलटते,</div><div>समय पाकर लगा-</div><div>अधिकाँश इसमें निरर्थक हैं-रद्दी कागजों की ढेर!</div><div>फिर.....मैंने उन्हें नदी में डलवा दिया !</div><div>मेरे पास कुछेक सालों की लिखी डायरियों का संग्रह था,</div><div>फुर्सत में-</div><div>पलटते हुए पाया,</div><div>उनके पृष्ठों पर आँसुओं के कतरे थे-</div><div>बाद में ये कतरे किसी को भिंगो सकते हैं,</div><div>ये सोच-मैंने मन को मजबूत किया,</div><div>फिर उन्हें भी नदी के हवाले कर दिया!</div><div>अब,....मेरे पास कुछ नहीं,</div><div>सिर्फ़ एक पोटली बची है-जिंदगी के लंबे सफर की!</div><div>यादें, जिसमें भोर की चहचहाती चिडियों का कलरव है!</div><div>यादें,जिसमें नदी के मोहक चाल की गुनगुनाहट <span class="">है!</span></div><div><span class="">दिल जीतनेवाली अटपटी बातों की मधुर रागिनी है!</span></div><div><span class="">बोझिल क्षणों को छू मंतर करनेवाले कहकहों की गूंज है</span></div><div><span class="">जीत-हार और <span class="">रूठने-</span>मनाने का अनुपम खेल है!</span></div><div><span class="">खट्टी-मीठी बातों की फुलझडी है</span></div><div><span class="">दिन का मनोरम उजास है,</span></div><div><span class="">रात की जादुई निस्तब्धता है,</span></div><div><span class="">छोटी-छोटी खुशियों की फुहार में भीगने का उपक्रम है</span></div><div><span class="">और कभी न भुलाए जानेवाले दर्द का आख्यान भी है! </span></div><div><span class="">ख्याल आता है,</span></div><div><span class="">पोटली को बहा देती तो मुक्ति मिल जाती!........</span></div><div><span class="">पर अगले ही क्षण हँसी आती है</span></div><div><span class="">- मुक्ति शब्द -प्रश्न-चिन्ह बनकर खड़ा हो जाता <span class="">है,</span> </span></div><div><span class="">जिसका जवाब नहीं!!!</span></div><div><span class="">तो, जतन से सहेज रखा है -</span></div><div><span class="">यादों की इस पोटली को</span></div><div><span class="">जिस दिन विदा लूंगी -</span></div><div><span class="">यह भी साथ चली जायेगी!</span></div><br /><div><span class=""></span></div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-70441460835413300842008-07-12T16:26:00.004+05:302008-07-12T19:54:23.621+05:30बहुत दिनों बाद.....<a href="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SHibeZasT5I/AAAAAAAAAEc/Fj_dMjBhG5I/s1600-h/Pics+for+blog+(39).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5222094714457313170" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SHibeZasT5I/AAAAAAAAAEc/Fj_dMjBhG5I/s200/Pics+for+blog+(39).jpg" border="0" /></a><br /><div>बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ-<br />तकिये पर सिर टिका कर लेटी<br />तो पलकें गिराने का मन नहीं किया....<br />ये कोई नई बात नहीं थी,<br />बात नई यह थी-<br />आंखों में डाली दवा बही<br />बित्ते भर के फासले पर<br />तुम हो लेटी हुई<br />और मुझे दिखा एक रंग और कूची<br /><span class="">रंग वही,जो अक्सर सभाल कर रख देती हूँ</span><br /><span class="">मैं चुप, तुम्हे देखती रही-</span><br /><span class="">आख़िर रहा नहीं गया,मैं बुदबुदाई -</span><br /><span class="">तुम्हे रंग दूँ?</span><br /><span class="">एकटक तुम मुझे देखती रही कुछेक क्षण</span><br /><span class="">फिर धीरे से कहा-</span><br /><span class="">क्या मैं तुम्हे बेरंग दिखती हूँ?</span><br /><span class="">मैंने मन ही मन में कहा-नहीं, ऐसी तो बात नहीं,</span><br /><span class="">बस , मन में आया</span><br /><span class="">महज बित्ते भर के फासले से तुम बोली-'ज़रूरत नहीं'</span><br /><span class="">और अगर है भी,</span><br /><span class="">तो मुझमें रंग भरनेवाले बहुत हैं....</span><br /><span class="">सकुचाती हुई मैं बोली,फुसफुसाती सी</span><br /><span class="">मालूम है मुझे,बस मन किया</span><br /><span class="">मेरे पास तो रंग भी बहुत नहीं</span><br /><span class="">और कूची भी सिर्फ़ एक है</span><br /><span class="">तुम जानती भी हो</span><br /><span class="">वह रंग-'फीको पड़े न बरु फटे '</span><br /><span class="">नाम क्या बताना?</span><br /><span class="">रहीम को तो जानती ही हो</span><br /><span class="">-"रहिमन धागा.....मत जोडो चटकाए </span><br /><span class="">जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए!"</span><br /><span class="">तुम चुपचाप मुझे देखती रही-फिर बोली</span><br /><span class="">'मुझे कुछ नहीं बोलना................'</span><br /><span class="">बोलना था मुझे,</span><br />पर तुम पर निरर्थक परेशानी लाद दूँ<br /><span class="">सोच कर चुप हो गई!</span><br /><span class="">अचानक तुमने करवट ले ली-</span><br /><span class="">मैंने अपनी छाती सहलाई!</span><br /><span class="">ख़ुद से पूछा -'क्या मेरी छाती में दर्द हो रहा है?'</span> </div><div><span class="">ख़ुद पर चिडचिडाते हुए बड़बडाई -</span><br /><span class="">तो मरो तुम!</span><br /><span class="">मूर्खाधिराज ! रंग पलट दो,कूची तोड़ दो</span><br /><span class="">किसी पंख फटकारते पक्षी की ताकत लगाकर</span><br /><span class="">तोड़ दो जिंदगी की तीलियाँ </span><br /><span class="">और उड़ जाओ!</span><br /><span class="">उठ कर मैंने रंग और कूची संभाल कर रख दी</span><br /><span class="">कौन जाने कभी काम आए </span><br /><span class="">और इसके सिवा अपने पास है भी क्या ?</span><br /><span class="">अपनी बेबसी की लम्बी साँस लेकर </span><br /><span class="">तकिये पर जब फिर लेटी </span><br /><span class="">तो आंखों से पानी आने लगा</span><br /><span class="">' रे मन मूरख जनम गंवायो'</span><br /><span class=""></span><br /><span class=""></span><br /></div><span class=""></span>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-41582626106195018592008-06-21T12:00:00.004+05:302008-06-21T12:44:18.186+05:30सुकून........<a href="http://bp0.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SFyoOxqv61I/AAAAAAAAAEU/5EzYpjrrCB8/s1600-h/blogger+(38).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5214227440392465234" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp0.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SFyoOxqv61I/AAAAAAAAAEU/5EzYpjrrCB8/s200/blogger+(38).jpg" border="0" /></a><br /><div>सुकून मिलता है-</div><br /><div>बेशुमार फूलों के गले लगकर,</div><br /><div>रंगों से लिपटकर,</div><br /><div>इन्द्रधनु की चुनरी पहनकर,</div><br /><div>सुकून मिलता है.......</div><br /><div>अब याद नहीं आता,कि-</div><br /><div>मैं चाँद के गाँव कब गई थी!</div><br /><div>कोई रेशमी डोर थामकर शायद तुम्हीं आ गए थे,</div><br /><div>देखा ,</div><br /><div>तो विस्मित आँखें खुली रह गई थीं,</div><br /><div>सोचकर सुकून मिलता है..................</div><br /><div>मेरे सपनों के सोनताल में ,</div><br /><div>कोई नन्हा कमल आज भी खिलता है!</div><br /><div>उस दिन-</div><br /><div>भोर की स्निग्ध किरणों का नाच-गान जारी था,</div><br /><div>चतुर्दिक भैरवी की तान गूंज रही थी,</div><div><span class=""></span>मैंने सुना,</div><br /><div>"अम्मा मैं आ गया"</div><br /><div>आवाज़ सुनकर मुझमें हरकत आई थी,</div><br /><div>चेतना जगी थी....</div><br /><div>पलकें खोल तुम्हारी ओर देखा था,</div><br /><div>सोचकर सुकून मिलता है........................</div><br /><div>सहसा मुझे ये पंक्तियाँ याद आयीं ,</div><br /><div><span class="">नैनन की</span> करी कोठरी ,</div><br /><div>पुतली पलंग बिछाए,</div><br /><div>पलकन की चिक डार <span class="">के,</span></div><br /><div><span class=""><span class="">पिय को</span> लिया रिझाए।'</span></div><br /><div><span class="">चेहरे में मेरे आराध्य की छवि थी,</span></div><br /><div><span class="">हर्षातिरेक से रोमांचित मेरा 'मैं' ,</span></div><br /><div><span class="">तुम्हारे चरणों पर झुका -</span></div><br /><div><span class="">या, माँ की ममता ने </span></div><br /><div><span class="">फूल से दो नन्हे पाँव चूम लिए............</span></div><br /><div><span class="">मेरे पुण्यों का फल सामने था,</span></div><br /><div><span class="">सोचकर सुकून मिलता है..........................</span></div><br /><div><span class=""></span></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-33925082723067782802008-05-02T15:13:00.004+05:302008-05-02T15:52:14.049+05:30विस्मृति की चादर......<a href="http://bp0.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SBrqaOREu_I/AAAAAAAAAEM/DI6jeFPNvWw/s1600-h/299561640_6276d44ffd.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5195722856352496626" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp0.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SBrqaOREu_I/AAAAAAAAAEM/DI6jeFPNvWw/s200/299561640_6276d44ffd.jpg" border="0" /></a><br /><div>समय बुनता रहा,<br />बड़ी घनी चादर-विस्मृति की,<br />और तहाकर मेरे सिरहाने धर गया<br />यह कहता हुआ-<br />ज़रूरत पड़ती है,तुमको भी होगी,<br />अपने ऊपर डाल लेना!<br />चादर को देखते हुए<br />मैंने कुछ कहना चाहा,<br />लेकिन मेरी आवाज़ को ठंड लग गई!<br />उसी दिन आधी रात को,<br />घटाएँ उठीं,बिजली कौंधी<br />हवा ने किवाड़ खटखटाये<br />और मैंने सुना-<br />दरवाजा खोल दो,<br />बूंदा बांदी शुरू हो गई है<br /><span class="">भींग जाऊंगा</span><br /><span class="">जल्दी करो,दरवाजा खोल दो। </span><br /><span class="">बेसुध होकर मैं दौड़ी गई,</span><br /><span class="">बंद दरवाज़े पर कान लगाया -</span><br /><span class="">आवाज़ तो पहचान लूँ,</span><br /><span class="">कहीं भ्रम तो नहीं!</span><br /><span class="">मेरी अधीरता बढ़ती गई,</span><br /><span class="">हवा किवाड़ पिटती रही,</span><br /><span class="">पर वह आवाज़ बंद हो गई!</span><br /><span class="">लौटकर आई तो काँप रही थी,</span><br /><span class="">सिरहाने पड़ी थी चादर</span><br /><span class="">समय की दी हुई-</span><br /><span class="">विस्मृति की!</span><br />कि आराम पाने के लिए</div><div>अपने आपको ढँक लूँ...</div><div>चादर खोलने को हाथ बढ़ाया ही था,</div><div>तभी खिड़की खुल गई</div><div>बौराई हवा के साथ पानी की तेज बौछार .....</div><div>खिड़की जब तक बंद करूँ,</div><div>विस्मृति कि चादर भींग गई!</div><div>कमरे का अन्धकार मन को डराने लगा </div><div>पुकार कर अपने आस-पास </div><div>सबको इकठ्ठा कर लूँ,</div><div><span class="">सहसा ख्याल</span> आया-</div><div>सुखकर होगा,</div><div>यादों के लैंप पोस्ट के <span class="">नीचे </span>बैठना</div><div>उभरते छाया चित्रों से बातें करना,</div><div>कुछ पढ़ना,कुछ लिखना,</div><div>देखते-ही-देखते -</div><div>रात कट जायेगी! </div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-73169486238801732622008-04-19T13:27:00.004+05:302008-04-19T13:42:18.490+05:30हुआ क्या है??????<a href="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SAmo2bGZ_oI/AAAAAAAAAEE/e94RoXpT0RI/s1600-h/blog+(1).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5190865698462236290" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/SAmo2bGZ_oI/AAAAAAAAAEE/e94RoXpT0RI/s200/blog+(1).jpg" border="0" /></a><br /><div>कुछ तो कहो,हुआ क्या है?</div><br /><div>शिथिल प्राण,</div><br /><div>शिथिल चरण,</div><br /><div>उलझी अलकें,</div><br /><div><span class="">उनीदीं </span><span class="">पलकें,</span></div><br /><div><span class="">छलकते नयन-</span></div><br /><div><span class="">निर्मल झंझा के झोंकों से प्रवाहित,</span></div><br /><div><span class="">दिग्भ्रांत पथिक -सा विक्षिप्त मन,</span></div><br /><div><span class="">बड़ी जिज्ञासा है, कुछ तो कहो-</span></div><br /><div><span class="">हुआ क्या है?</span></div><br /><div><span class="">- पूछो जा सागर से,</span></div><br /><div><span class="">मौन रत्नाकर से,</span></div><br /><div><span class="">उठती हुई लहरों से,</span></div><br /><div><span class="">उन्मादित ज्वारों से,</span></div><br /><div><span class="">कैसा उत्पीड़न है,</span></div><br /><div><span class="">कैसी आकुलता है,</span></div><br /><div><span class="">कैसी विह्वलता है-</span></div><br /><div><span class="">मुझसे मत पूछो, हुआ क्या है???????</span></div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-25246406905689441532008-04-11T19:04:00.004+05:302008-04-11T19:22:47.547+05:30टूटा हुआ आदमी भी,चलता है!<a href="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R_9r51D70cI/AAAAAAAAAD8/u28kdBSMSno/s1600-h/BLOGGER+PICS...+(2).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5187983936994398658" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R_9r51D70cI/AAAAAAAAAD8/u28kdBSMSno/s200/BLOGGER+PICS...+(2).jpg" border="0" /></a><br /><div><br />जो स्नेह करता हैं,</div><div>वही दुःख पाता हैं,</div><div>उसकी ही साँसें गिनती हैं घड़ियाँ,</div><div>वही चुना करता हैं,</div><div><span class="">आँसुओं </span>के फूल,</div><div>छेड़ दिल के तारों को,</div><div>दर्द भरा गीत वही गाता हैं,</div><div>जो स्नेह करता हैं,</div><div>वही दुःख पाता हैं!</div><div> माना कि तुम-कोई कवि नहीं हो,</div><div>पर स्नेहसिक्त अनुभूतियों<span class=""> से अजनबी </span>नहीं हो-</div><div>इस बात को तुम कैसे झुठलाओगे?</div><div>-नदी के उस पार ,</div><div>जब विश्वास का दिया जलता हैं,</div><div>तो सुना हैं मैंने-</div><div>"टूटा हुआ आदमी भी चलता हैं!"</div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-86986043439866107072008-04-09T13:43:00.003+05:302008-04-09T14:12:07.548+05:30प्यार भरा उपहार.......<a href="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R_yBHEjzUxI/AAAAAAAAAD0/4i_jOx5KWaw/s1600-h/blog...+(4).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5187162829306942226" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp1.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R_yBHEjzUxI/AAAAAAAAAD0/4i_jOx5KWaw/s200/blog...+(4).jpg" border="0" /></a><br /><div>सुबह,दोपहर,शाम,</div><br /><div>और रात के रंग में रंगी</div><br /><div>-समय की चादर,</div><br /><div>बिना रुके सरकती जा रही हैं.....</div><br /><div>धडकनों के अहर्निश ताल पर,</div><br /><div>किसी अज्ञात नशे में झूमती,</div><br /><div>ज़िंदगी थिरकती जा रही <span class="">हैं.....</span></div><br /><div><span class="">आगे बढ़ो,</span></div><br /><div><span class="">जी चाहे जिस रंग से,</span></div><br /><div><span class="">चादर पर अपना नाम लिख दो ,</span></div><br /><div><span class=""><span class="">जीवन-</span>पात्र में ,</span></div><br /><div><span class="">प्राणों की बाती</span><span class=""> डालकर,</span></div><br /><div><span class="">नेह से भर दो.......</span></div><br /><div><span class="">लौ उकसाओ,</span></div><br /><div><span class="">और रंगों की मूल पहचान सीख लो,</span></div><br /><div><span class="">इसी ज्योति में वो सारी तस्वीरें,</span></div><br /><div><span class="">कहीं-न-कहीं दिखेंगी-</span></div><br /><div><span class="">जो तुम्हारे आस-पास हैं...</span></div><br /><div><span class="">देर मत करना,</span></div><br /><div><span class="">वरना चूक जाओगे...</span></div><br /><div><span class="">समय का क्या हैं,</span></div><br /><div><span class="">उसके चरण नहीं थमते,</span></div><br /><div><span class="">भूले से भी किसी का</span></div><br /><div><span class="">इंतज़ार नहीं करते...</span></div><br /><div><span class="">जीने के लिए मेरे प्रियवर ,</span></div><br /><div><span class="">मन को अनुराग रंग में रंग लो..............</span></div><br /><div><span class="">यह मेरी सीख नहीं,</span></div><br /><div><span class="">प्यार भरा उपहार हैं!</span></div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-75704027330993501052008-04-03T13:33:00.004+05:302008-04-03T15:46:56.010+05:30बांसुरी.....<a href="http://bp2.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R_SuUUjzUwI/AAAAAAAAADs/1wQV63C4jiI/s1600-h/flute.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5184960735149773570" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp2.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R_SuUUjzUwI/AAAAAAAAADs/1wQV63C4jiI/s200/flute.jpg" border="0" /></a><br /><div>मन को एक बांसुरी कि तलाश थी,<br />गीतों कि रिमझिम में-<br />जीवन भर भींगते रहने के लिए,<br />वह मिली और टूट गई!<br />वे सारे गीत,<br />जिन्हें गाकर गीतों कि रिमझिम में भींगना था ,<br />अन्गाए बिखर गए!<br />एक छोटी-सी बांसुरी को,<br />पता नहीं कैसे-<br />मैंने जीवन भर का संबल मान लिया था!</div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-34379713708365157322008-03-30T19:52:00.004+05:302008-03-30T20:03:52.322+05:30प्यार..............?<a href="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R--kX0jzUvI/AAAAAAAAADk/6IcrBeboTwg/s1600-h/blog+(10).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5183542425279484658" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R--kX0jzUvI/AAAAAAAAADk/6IcrBeboTwg/s200/blog+(10).jpg" border="0" /></a><br /><div>प्यार वह तिलस्मी संसार हैं</div><br /><div>जो <span class="">जुनून </span>बनकर रगों में दौड़ता हैं,</div><br /><div>जब तिलिस्म टूटता हैं-तो पता चलता हैं,</div><br /><div>बहुत कुछ पीछे छूट गया!</div><br /><div>जुनून में डूबी हर कहानी,</div><br /><div>स्याह रास्तों से होकर गुजरती हैं,</div><br /><div>किसी आनेवाले सुबह के इंतज़ार में</div><br /><div>अंधेरों से जूझते हुए दम तोड़ती हैं!</div><br /><div>तुम्हारे शब्दों में-प्यार एक पूजा हैं</div><br /><div>अक्षत हैं,रोली हैं,चंदन हैं</div><br /><div>पूजा की वेदी पर मन का समर्पण हैं!</div><br /><div>लोग कहते हैं,</div><br /><div>प्यार एक पाप हैं,</div><br /><div>दर्द का सौदा हैं,</div><br /><div>दुर्वासा का शाप हैं....</div><br /><div>सही क्या हैं,ग़लत क्या हैं</div><br /><div>कहीं नहीं लेखा हैं</div><br /><div>धरती और आकाश का मिलन</div><br /><div>किसी ने नहीं देखा हैं! </div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-22308051408187466612008-03-28T14:18:00.004+05:302008-03-28T20:28:45.548+05:30दर्द का रिश्ता...(संपादक "श्री अम्बुज शर्मा" के अनुरोध पर -<br />उन्होंने इस कविता को माँगा था, अपनी पत्रिका "नैन्सी " के लिए (हिन्दी दिवस विशेषांक) )<br /><br /><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5182722803785487010" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R-y67kjzUqI/AAAAAAAAAC4/dk199thuHfE/s200/blog+(28).jpg" border="0" /><br /><br />राष्ट्र कवि दिनकर ने लिखा हैं-<br />"प्रभु की जिसपर कृपा होती हैं<br />दर्द उसके दरवाज़े<br />दस्तक देता हैं....."<br /><br />पंक्तियों के मर्म की जब परतें खुली,<br />अंतस के निविड़ अन्धकार मे,<br />किरणें कौंधी!<br />मैं अवाक्! निश्चेष्ट !<br />अप्रतिम छवि को<br />पलकों मे भरती रही....<br />भीतर से विगलीत आवाज़ आई -<br />"दाता तेरी करुणा का जवाब नही"<br />सहसा महसूस हुआ ,<br />दर्द का रिश्ता<br />हमारे अन्दर जीता हैं<br />दर्द की मार्मिक लय<br />आस-पास गूंजती हैं<br />दर्द का कड़वा धुआं ,<br />साँसों मे घुटन भरता हैं<br />ओह!<br />अनदेखा, गुमनाम होकर भी<br />अन्तर की गहराइयों मे बेबस बैठा<br />कोई फूट-फूट कर रोता हैं!<br />रिश्तों की डोर<br />मेरी आत्मा से बंधी हैं ,<br />अपना हो या और किसी का -<br />चाहे - अनचाहे मैं भंवर मे फँस जाती हूँ !<br />छाती की धुकधुकी बढ़ जाती हैं,<br />घबरा कर ,<br />अनदेखे , अनजाने को<br />बाँहों मे भर कर ,<br />सिसकियों मे डूब जाती हूँ !<br />लोग कहते हैं-<br />मुझे सोचने की बीमारी हैं,<br />मैं लोगों की बातों का उत्तर<br />नहीं दे पाती!<br />अचानक, ये मुझे क्या हो गया हैं,<br />शायद....<br />दर्द के इसी रिश्ते को लोग<br />"विश्व-बंधुत्व " की भावना कहते हैं,<br />तो देर किस बात की बंधु ?<br />दो कदम तुम चलो ,<br />दो कदम हम....<br />और इसी रिश्ते के नाम पर<br />पथ बंधु बन जाएँ !<br />जीवन की डगर को<br />सहयात्री बन काट लेंगे...<br />दर्द को हम बाँट लेंगे.....!सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-78387491626804020062008-03-25T19:15:00.004+05:302008-03-28T15:08:59.921+05:30मैं चाहूंगी, तुमसे कभी मिलूं!<div>(काव्यसंग्रह "नदी पुकारे सागर" से उद्धृत) </div><div><br /><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5182724053620970162" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp2.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R-y8EUjzUrI/AAAAAAAAADA/2fO98KU1kA0/s200/berg-wash.jpg" border="0" />अगर तुमने कभी , नदी को गाते नही<br />प्रलाप करते हुए देखा हैं<br />और वहाँ कुछ देर ठहर कर<br />उस पर गौर किया हैं<br />तो मैं चाहूंगी तुमसे कभी मिलूं!<br /><br />अगर तुमने पहाडों के<br />टूट - टूट कर बिखरने का दृश्य देखा हैं<br />और उनके आंखों की नमी महसूस की हैं<br />तो मैं चाहूंगी तुम्हारे पास थोडी देर बैठूं !<br /><br />अगर तुमने कभी पतझड़ की आवाज़ सुनी हैं<br />रूदन के दर्द को पहचाना हैं<br />तो मैं तुम्हे अपना हमदर्द मानते हुए<br />तुमसे कुछ कहना चाहूंगी!<br /><br />लेकिन मुझे यही नही पता , तुम हो कहाँ?<br />मैं तुमसे कहाँ मिलूं ?<br />अजनबी चेहरों की भीड़ से निकलकर<br />कभी सामने आओ...<br />तो मैं तुम्हारा स्वागत करूंगी!<br /><br />ज़िंदगी प्रतिपल सरकती जा रही हैं<br />और मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा हैं<br />अँधेरा घिरते ही,<br />उम्मीद का दिया जला लेती हूँ<br />जाने कब, कहाँ पलकें बंद हो जाएं...<br />इससे पहले मैं चाहूंगी<br />तुमसे अवश्य मिलूं...<br />तुम्हे जी भर कर देख लूँ....</div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-46382368307530279122008-03-23T15:06:00.006+05:302008-03-28T15:11:24.366+05:30हे प्रभु!<a href="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R-y87kjzUsI/AAAAAAAAADI/GglWQnAE5_M/s1600-h/1+(32).jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5182725002808742594" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R-y87kjzUsI/AAAAAAAAADI/GglWQnAE5_M/s200/1%2B(32).jpg" border="0" /></a><br /><div><a href="http://bp3.blogger.com/_JN_7j_qrRFs/R-ZRTEjzUnI/AAAAAAAAACg/cslZ3Nu4Y9M/s1600-h/1+(32).jpg"></a>इस विराट पृथ्वी पर फैले<br />संबंधों का जाल<br />एक दिन<br />व्यर्थ सिद्ध होते हैं!<br />फिर, किसकी खोज में भटकता हैं मन?<br />ये चकित,चमत्कृत आँखें<br />विस्मय लिए डोलती हैं!<br />समझ नही पाता मन<br /><span class="">क्या ढूँढती हैं!</span><br /><span class="">कौन-सी चीज़ विद्युत सी चमक कर</span><br /><span class="">व्याकुलता की ओर बढ़ाती है!</span><br /><span class="">ख़ुद गाए गीतों से</span><br /><span class="">या तुमसे कोई गीत सुनकर</span><br /><span class="">क्यों मेरा 'मैं'</span><br /><span class="">कतरे-कतरे में पिघलता हैं?</span><br /><span class="">अन्तर में छिपा यह स्रोत कैसा हैं</span><br /><span class="">जो कल-कल निनाद करता हैं?</span><br /><span class="">हे प्रभु!</span><br /><span class="">मेरे पल्ले आज तक</span><br /><span class="">कुछ नहीं पड़ा !</span></div>सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-1618019537419974226.post-3768614752056700402008-03-19T15:01:00.000+05:302008-03-19T15:02:30.839+05:30तुम्हारे बदलने का प्रमाण!क्या यह पर्याप्त नहीं <br />कि मैं अपने को <br />बिना ज़मीन,बेघरबार,<br />नितांत अकेला महसूस करती हूँ!<br />तुम्हे नहीं पता,<br />मेर चारों ओर फैला अनंत आकाश,चाँद सितारे,धूप-छान्ही रंगों की आँख-मिचौली<br />सब अर्थ-हीन हो गए!<br />धरती पर खिले फूलों की गंध,<br />परायी लगने लगी<br />क्या यही प्रमाण पर्याप्त नहीं<br />कि मेरा अकेलापन <br />पारे की तरह अनियंत्रित हो गया!<br />नियति का यह दर्द नहीं<br />कि मेरे और तुम्हारे बीच <br />अलगाव हो गया!<br />किस सेतु की कल्पना करूँ?<br />जहाँ तुम्हारा मन मंत्रविद्ध हुआ <br />वहाँ अपनी पहचान बना कर<br />नहीं रह पाओगे!<br />मुझमे संवेदनाओं के सारे श्रोत सूख रहे हैं<br />मेरा अतीत <br />पत्थर हुए फूलों का संग्रहालय!<br />इस अंतहीन आकाश में उड़ते हुए<br />मेरे पंख थक चुके हैं!<br />कितना अजीब लगता है ये सोच कर-<br />मैं चक्रवात में घिरी हूँ<br />तुम्हारे आँखों में अनजाने संदर्भों के<br />गुलाब खिल रहे हैं!<br />तुमको कैसे घेर पायेगा<br />मेरी डूबी आँखों का दर्द?<br />तुम्हारे बदल जाने का प्रमाण<br />क्या यह पर्याप्त नहीं<br />कि मेरे पास यथार्थ और नाटक का <br />अंतर मिट गया!<br />शेष बच रहा है दृश्य...<br />केवल दृश्य!!सरस्वती प्रसादhttp://www.blogger.com/profile/17703718319130702260noreply@blogger.com5