मेरी दुनिया...

Tuesday, February 19, 2008

फूल तोड़ना मना हैं!



तुम एक पार्क हो,
शब्द नहीं मिलते कि,
तुम्हारे रूप की प्रशंसा करूँ ....
मखमली दूबों से भरे रास्ते,
करीने से कटी झाडियों के बीच रंग-बिरंगे - असंख्य फूल ,
चारों ओर बिखरी इत्र की सुवास ,
तुम्हारा चुम्बकीय आकर्षण...
सिर्फ मुझे ही नहीं, सबको खींचता हैं...
रोज़-रोज़ मेरे पाँव,उधर चल पड़ने को विवश हो जाते हैं जिधर तुम हो
पर .....!
रोक लेती हूँ खुद को
इसलिए कि तुम एक पार्क हो,
पार्क में भीड़ हैं ,ऊँचे-ऊँचे लोगों की॥
और मेरे पास सिर्फ दो साड़ीयाँ हैं ,
बारी-बारी उन्हें पहनती हूँ
अक्सर तुम तक आने लगूँ
तो लोग मुझे घूरने लगेंगे...
-यह कौन हैं?
मैं जानती हूँ वे आश्चर्यचकित होंगे
इसे भी पार्क का शौक हैं!
अफ़सोस! आँखों की भाषा मैं समझ लेती हूँ,
इसीलिए खुद को रोक लेती हूँ॥
अपनी ग्लानी....!
छोडो इसे ,
तुम्हारा महत्व भी तो कमेगा
तुम एक पार्क हो -
रूप,रस,गंध से भरे
रोज़-रोज़ तुम तक पहुचने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाउंगी
और डर भी लगता हैं,
क्यूंकि जगह-जगह लगी तख्तियों पर
बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हैं

-फूल तोड़ना मना हैं!

Monday, February 18, 2008

मुझे डर हैं!



लगता हैं , तुमने हमने गोया सबने


बुद्धि की परतें जमा ली हैं


सूत्र वाक्य बोलने लगे हैं


अखबारी नीति से विचार विनिमय करने लगे हैं


आधुनिक लिबासों में


आकृतियाँ बदलनी सीख ली हैं


दार्शनिक मुद्राओं में ,


सिद्धांत गढ़ने लगे हैं


पर.....


अंतर की कोमल अनुभूतियों का क्या होगा?


क्या भावनाओ की स्निग्ध पंखुडियां


मुरझा कर सूख नहीं जायेंगी?


लगता हैं ,


हम तेजी से भागने लगे हैं


एक-दूसरे के पीछे धक्के मारते,


मुँह चिढ़ाते अबोध बच्चों की तरह,


बाजी जीतने की उतावली में -


अनुसंधान हम करेंगे ,


श्रेय का सेहरा हम पहनेंगे ,


एथेंस के सत्यार्थी की तरह


-नग्न सत्य का उद्घाटन हम करेंगे....


पर , थके पाँव, फटी अंगुलियाँ ,


लहु-लुहान पैर लिए - कहाँ बैठेंगे!


उन्मादित शिराओं का रक्त


क्या हमें विक्षिप्त नहीं कर देगा?


क्या सत्य को उद्घाटित करने की दौड़ में


जिद्दी सत्यार्थी की तरह


हमारी आँखें फूट नहीं जायेंगी?


मुझे डर हैं !


हम असभ्य से सभ्य हो गए, अशिक्षित से शिक्षित


-मूर्खों की पंगत से निकलकर विद्वान हो गए


शक्लें बदल दी ,लिबास बदल डाला


बोल-चाल की कौन कहे हाव-भाव ,


मुद्राएं बदल डाली


अवसर पर बोलना,चुप रहना ,


कहकहे लगाना सीख गए पर भूल गए


-भीगी उदास पलकों की भी


कोई भाषा होती हैं


जिसे पढ़ने के लिए


आत्मा की गहराई में


प्रवेश करना पड़ता हैं


क्या हम ऐसा कर सकेंगे?


अगर नहीं ,


तो क्या उस कलाकार की


सृजन कला का अपमान नहीं होगा?


मुझे डर हैं !


एक दिन हम पंगु हो जायेंगे


ऐसा कोई वर्तमान न होगा


जो जुगनू सा चमक कर


झूठी रौशनी का भ्रम पैदा कर सके


भविष्य की बेबुनियाद योजनायें


दुर्बल शरीर में


उत्ताप भरते-भरते


खुद ठंडी पड़ जायेंगी


और हम आशाओं , आकांक्षाओं के


ज़र्द पड़े फूलों को देखते रहेंगे


फिर भी, दर्द बंटाने को


कोई हाथ नहीं आएगा


प्राणों की उर्जा ,


किसी स्नेह-हीन लौ सी तड़पती हुई ,


अतीत की कथाओं पर दम तोड़ देगी!!!!!!!!!!!!

Saturday, December 1, 2007

"बेटी सरस्वती (यानी मैं) के प्रयाग आगमन पर!"


विजयादशमी का दिन था वह। पितृवत पन्त के पास बैठी थी मैं , कितनी कवितायेँ गा-गा कर उन्होने सुनाई।मेरे आग्रह पर - यह सुप्रसिद्ध रचना भी सुनाई "यह धरती कितना देती हैं" मेरी छोटी बेटी मिन्नी को नाम दिया - रश्मि। हमारी उपस्थिति में वहाँ प्रेमचंद जी के सुपुत्र अमृतराय जी आये तो पन्त जी ने परिचय दिया - "आओ अमृत,इनसे मिलो ,यह मेरी बेटी सरस्वती हैं.मुझसे मिलने सपरिवार आई हैं." महादेवी जी से फ़ोन पर उनकी बातें हुई.कभी-कभी यथार्थ भी स्वप्नवत लगता है-हम वहाँ हो कर भी जैसे किसी स्वप्नलोक में विचरण कर रहे थे...उनके आग्रह पर खाया,साथ-साथ चाय पी। "भरतमिलाप" देखने चलने को उन्होने कहा पर हमें लौटना था और...!हमें विदा करने आये तो अपनी गेट पे तब तक खड़े रहे जब तक हम आँखों से ओझल न हुए । "लोकायतन" की पहली प्रति मुझे उपहार स्वरूप भेजी । "चिदाम्बरा" पर जब पुरस्कार मिला तो मुझे लिख भेजा - "कुछ मांगो"।
दिल के दौरे के बाद जब डॉक्टर ने उन्हें लिखने को मना किया तो उनके पत्रों का आना कम हो गया और फिर... वे रहे नहीं। दाता की अनुपम देन है यह कि मेरी ज़िन्दगी की पुस्तक में इतने मधुरतम क्षण अंकित हैं।

Tuesday, November 6, 2007

अनुरोध {एक माँ की हृदयस्पर्शी भावना जिसका बेटा खेलते खेलते चला गया }

तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास
तुम अभी कुछ और बैठो......
भोर की पहली किरण के
गीत पावन खो गये
चाँद सिहरा सहम कर
सारे सितारे सो गये
स्वप्न के वीरान घर से
उठ रहा निः श्वास
तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास......
साध के बिखरे सुमन
पूजा विखंडित हो गयी
हाथ फैले रह गये
प्रतिमा विसर्जित हो गयी
धूम बन कर उड़ गया
मन का मधुर विश्वास
तुम अभी कुछ और बैठो...
जिस नए अंकुर को पा कर
बैठ कल्पित छाँव में
मैंने बाँधे आस के
नूपुर विहस कर पाँव में
दे वही अश्रु की थाती चल दिया चुपचाप
तुम अभी कुछ और बैठो...
एक लम्बी सी कहानी
भूमिका बन रह गयी
धूप छाँही रंग का
हर ढंग दुनिया कह गयी
मौन धरती रह गयी
गुमसुम रहा आकाश
तुम अभी कुछ और बैठो...
दो घडी भर के लिए
तुमसे यही अनुरोध हैं
कल की बातों का भला
किसको हुआ कब बोध हैं
पुण्य सारा लूट कर
जग ने दिया अभिशाप
तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास........
(नदी पुकारे सागर)

Monday, November 5, 2007

हमारे प्राण जलते हैं


हमारे प्राण जलते हैं
वहाँ उस ओर धरती की
सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ अरमान पलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ वैभव बरसता है ,खनक सिक्कों की होती है
जहाँ इंसान की इंसानियत बेफिक्र सोती है
वहाँ उस ओर धरती की
सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ सपने मचलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ चाँदी की चकमक में ह्रदय का प्यार खो जाता
जहाँ भगवन भी छलछद्म में मजबूर हो जाता
वहाँ उस ओर धरती की सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ मानव बदलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ पर जन्म लेते ही खुली तकदीर सो जाती
जहाँ पर ज़िन्दगी की सुबह में ही शाम हो जाती
वहाँ उस ओर धरती की सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ दिनमान ढलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !!!
(नदी पुकारे सागर )

..."प्यार एक खुशबू हैं"


मेरी आंखों में एक नदी बहती हैं...
मेरी सासों में कोई साज़ बजता हैं...
मेरा मन कस्तूरी का मृग...
मेरी सोच ,
" रंगियो चोल रंग चीर"
इस से अधिक मेरा कोई परिचय नही...
अगर तुम जानते हो यह बात तो निश्चित ही मुझे पहचान लोगे...
कहीं कोई व्यवधान नही....
नदी के पानी में उतर कर हंस बन जाना...
साँसों के बजते साज़ पर कोई मधुर गीत गाना...
कस्तूरी के मृग को आहत मत होने देना....
मेरी सोच के रंग में रंग कर...
मेरी पहचान का हिस्सा बन कर...
अपनी पहचान मेरे पास रख देना...
ज़िंदगी के रास्ते भले ही लंबे हो...
कौन कहाँ पे मुड़ जाये यह कोई नही जानता...
लोग खाली हाथ आते हैं , खाली हाथ जाते हैं...
सब कुछ यही पर छोड़ कर जाना हैं...
पर मैं एक चीज़ ले जाने को सोचती हूँ...
शायद तुमने बात समझ ली...
पहचान पास ही रहने दो...
"प्यार एक खुशबू हैं"
इस एहसास को साथ लेकर ही
यहाँ से जाना चाहती हूँ....

नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...


न पूछो ये हमसे , कहाँ क्या हुआ है ...
बताना है मुश्किल , कहाँ क्या हुआ है ...
कुछ तो हुआ है , कहीं तो हुआ है ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
न बादल ही गरजे , न बरसा है पानी ...
न तुमने कही मुझसे कोई कहानी ...
मगर साँसों की लय थाम सी गयी हा ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
यहाँ दोस्ती संगदिली में बदलती ...
सरल कामनाएं भी पग पग पर छलती ...
यहाँ पाने का नाम कोरा भरम है ..
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
न मंजिल है कोई न कोई डगर है ...
मैं जाऊं कहाँ ये बेगाना शहर है ...
उम्मीदें हैं औंधी पड़ी सोयी सोयी ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
ये दुनिया लगी मुझको इक जादू - नगरी ...
छलकती रही मेरे नैनो की डगरी ...
भरी भीड़ में भी रहा में अकेला ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
हुआ कितना तनहा विकल मन का कोना ...
गया दूर चुपके से सपना सलोना ...
बड़ी संगदिल हैं कफस की सलाखें ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...