मेरी दुनिया...

Monday, September 8, 2008

प्रश्नों के आईने में....

- ज़िन्दगी के मेले में - 'अपनी खुशी न आए थे............' पर आ गए। आरा शहर की एक संकरी सी गली के तिमंजिले मकान में मेरा जन्म २८ अगस्त को हुआ था। समय के चाक पर निर्माण कार्य चलता रहा। किसी ने बुलाया 'तरु' (क्योंकि माता-पिता की इकलौती संतान होने के नाते मैं उनकी आंखों का तारा थी)। स्कूल (पाठशाला) में नामांकन हुआ 'सरस्वती' और मेरी पहचान - सरू,तरु में हुई। प्रश्नों के आईने में ख़ुद को देखूं और जाँचूं तो स्पष्टतः मुझे यही कहना होगा -
मेरे मन के करीब मेरी सबसे अच्छी दोस्त मेरी माँ थी । खेल-खिलौने , साथी तो थे ही ,पर मैं 'उसे' नहीं भूल सकी, जिसने सबसे पहले मेरे मन को रौशन किया - वह था , मेरे कमरे का गोलाकार रोशनदान । सूरज की पहली किरणें उसी से होकर मेरे कमरे के फर्श पर फैलती थीं । किरणों की धार में अपना हाथ डालकर तैरते कणों को
मुठ्ठी में भरना मेरा प्रिय खेल था । यह खेल मेरे अबोध मन के अन्दर एक अलौकिक जादू जगाता था ।
मेरी आँखें बहुत सवेरे पड़ोस में रहनेवाली नानी की 'पराती' से खिलती थी। नानी का क्रमवार भजन मेरे अन्दर अनोखे सुख का संचार करता था । मुंह अंधेरे गलियों में फेरा लगनेवाले फ़कीर की सुमधुर आवाज़ इकतारे पर - ' कंकड़ चुन-चुन महल बनाया
लोग कहे घर मेरा है जी प्यारी दुनिया
ना घर मेरा ना घर तेरा , चिडिया रैन बसेरा जी
प्यारी दुनिया ......' । मेरे बाल-मन में किसी अज्ञात चिंतन का बीजारोपण करती गई। फ़कीर की जादुई आवाज़ के पीछे - पीछे मेरा मन दूर तक निकल जाता था। मेरे कुछ प्रश्नों पर मेरे माँ , बाबूजी गंभीर हो जाते थे। मेरा बचपन शायद वह छोटी चिडिया बन जाता था,जो अपनी क्षमता से अनभिज्ञ नभ के अछोर विस्तार को माप लेना चाहती थी। मुझे लगता था सूरज का रथ मेरी छत पर सबसे पहले उतरता है। चाँद अपनी चांदनी की बारिश मेरे आँगन में करता है। तभी मैं अपने साथियों के साथ 'अंधेरिया-अंजोरिया'का खेल खेलते हुए मुठ्ठी में चांदनी भर-भर कर फ्रॉक की जेब में डालती थी और खेल ख़त्म होने पर उस चांदनी को निकालकर माँ के गद्दे के नीचे छुपा देती थी....
मैंने पढ़ना शुरू किया तो बहुत जल्दी ही पुस्तकों ने मुझे अपने प्रबल आकर्षण में मुझे बाँधा। इस प्रकार कि देखते-ही-देखते मेरी छोटी सी आलमारी स्कूली किताबों के अलावा और किताबों से भर गई। 'बालक,चंदामामा,सरस्वती,' आदि पत्रिकाओं के अलावा मैं माँ के पूजा घर से 'सुख-सागर,प्रेम-सागर,रामायण का छोटा संस्करण ' लेकर एकांत में बैठकर पढ़ती थी। राजेंद्र बाबू की आत्मकथा (मोटी पुस्तक)मैंने बचपन में ही पढ़ी थी। आलमारी खोलकर पुस्तकें देखना , उन्हें करीने से लगाना ,उन पर हाथ फेरना मुझे अत्यन्त सुख पहुंचाता था । शायद यही वजह रही होगी या मेरे घर का एकाकीपन कि मेरे मन को कोई तलाश थी। कल्पना के ताने-बाने में कोई उद्वेग भरता था,छोटे से मन कि छोटी सी दुनिया में कोई अनजानी उदासी चक्कर काटती थी। मन के कोने में रंगीन तितली पालनेवाली तरु को किसकी खोज थी?-शायद रिश्तों की। और इसी खोज ने मेरी कल्पना को पंख दिए ,जो मैं देखती थी उससे परे जाकर भी सोचती थी।
मैं जिस मुहल्ले में रहती थी वहां हर जाति और तबके के लोग थे। बड़े-छोटे का भेदभाव क्या था,कितना था - इससे परे चाचा,भैया,काका का ही संबोधन मैं जानती थी। कई मौके मेरी आंखों के आगे आए - रामबरन,रामजतन काका को गिडगिडाते देखा -' मालिक,सूद के ५०० तो माफ़ कर देन,जनम-जनम जूतों की ताबेदारी करूँगा'......बिच में टपक कर तरु बोल उठती - 'छोड़ दीजिये बाबूजी, काका की बात मत टालें' और तरु का आग्रह खाली नहीं जाता।
कुछ कर गुजरने की खुशी को महसूस करती तरु को लगता कोई कह रहा है, ' तरु - तू घंटी की मीठी धुन है,धूप की सुगंध,पूजा का फूल ,मन्दिर की मूरत.....मेरे घर आना तेरी राह देखूंगा....' कौन कहता था यह सब?रामबरन काका ,रामजतन काका , बिलास भैया , या रामनगीना .........
अपनी ही आवाज़ से विस्मय - विमुग्ध हो जाती थी तरु। खाली-खाली कमरों में माँ माँ पुकारना और ख़ुद से सवाल करना,साथ-साथ कौन बोलता है? जिज्ञासु मन ने जान लिया यह प्रतिध्वनि है। छोटी तरु के मुंह से प्रतिध्वनि शब्द सुनकर उसके मास्टर जी अवाक रह गए थे और माथे पर हाथ रखा था ' तू नाम करेगी ' । पर किसने देखा या जाना था सिवा तरु के कि खाली-खाली कमरों से उठता सोच का सैलाब उसे न जाने कहाँ-कहाँ बहा ले जाता है। फिर वह यानी मैं - अपने एकांत में रमना और बातें करना सीख गई,शायद इसीका असर था कि उम्र के २५ वे मोड़ पर आकर मेरी कलम ने लिखा -
"शून्य में भी कौन मुझसे बोलता है,
मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ
किसकी आँखें मुझको प्रतिपल झांकती हैं
जैसे कि चिरकाल से पहचानती हैं
कौन झंकृत करके मन के तार मुझसे बोलता है
मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ.........."
धरती से जुड़े गीत-संगीत कि दुनिया मेरे चारों ओर थी,इसलिए मुझे गीत-संगीत से गहरा लगाव था,उसके प्रति प्रबल आकर्षण था।
चिडियों का कलरव , घर बुहारती माँ के झाडू कि खुर-खुर, रामबरन काका के घर से आती गायों के गले कीघंटियों की टूनन -टूनन , काकी के ढेंकी चलाने की आवाज़ ,नानी की पराती,गायों का रम्भाना,चारा काटने की खटर -खुट-खट ,बंसवाड़े से आती हवा की सायं-सानी (सीटियों जैसी)....... संगीत ही संगीत था मेरे चारों ओर। वकील चाचा के घर से ग्रामोफोन पर के.सी.डे और सहगल की आवाज़ बराबर आती। सहगल का यह गीत आज भी याद आता है तो अपनी सोच पर हँसी आ जाती है , 'करेजवा में हाय राम लग गई चोट ' , सुनकर मुझे दुःख होता था किकिसने इसे इस प्रकार ज़ोर से मारा कि बराबर गाता है लग गई चोट ! यह बात तो बचपन की थी,पर बरसों बाद जाना कि चोट जो दिल पर लगती है,वह जाती नहीं। दिनकर जी के शब्दों में "आत्मा में लगा घाव जल्दी नहीं सूखता"।
इन्ही भावनाओं में लिपटी मैं घर गृहस्थी के साथ १९६१ में कॉलेज की छात्रा बनी । हिन्दी प्रतिष्ठा की छात्रा होने के बाद कविवर पन्त की रचनाएं मेरा प्रिय विषय बनीं । ६२ में साथियों ने ग्रीष्मावकाश के पहले सबको टाइटिल दिया ।कॉमन रूम में पहुँची तो सबों ने समवेत स्वर में कहा ' लो, पन्त की बेटी आ गई'...... अब ना मेरी माँ थी और ना बाबूजी । साथियों ने मुझे पन्त की बेटी बनाकर मेरी भावनाओं को पिता के समीप पहुँचा दिया। उस दिन कॉलेज से घर जाते हुए उड़ते पत्तों को देखकर होठों पर ये पंक्तियाँ आई ," कभी उड़ते पत्तों के संग,मुझे मिलते मेरे सुकुमार"......
"उठा तब लहरों से कर मौन
निमंत्रण देता मुझको कौन"..........
अगले ही दिन मैंने पन्त जी को पत्र लिखा , पत्रोत्तर इतनी जल्दी मिलेगा-इसकी उम्मीद नहीं थी। कल्पना ऐसे साकार होगी,ये तो सोचा भी नहीं था.....'बेटी' संबोधन के साथ उनका स्नेह भरा शब्द मुझे जैसे सपनों की दुनिया में ले गया। अब मैं कुछ लिखती तो उनको भेजती थी,वे मेरी प्रेरणा बन गए । वे कभी अल्मोडा भी जाते तो वहां से मुझे लिखते.......हमारा पत्र-व्यवहार चलता रहा। पिता के प्यार पर उस दिन मुझे गर्व हुआ , जिस दिन प्रेस से आने पर 'लोकायतन' की पहली प्रति मेरे पास भेजी,जिस पर लिखा था 'बेटी सरस्वती को प्यार के साथ'
........
M.A में नामांकन के बाद ही मेरे साथ बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई,अचानक ही हम भंवर में डूब गए - इसके बाद ही हम इलाहबाद गए थे। पिता पन्त जब सामने आए तो मुझे यही लगा , जैसे हम किसी स्वर्ग से उतरे देवदूत को देख रहे हैं। उनका हमें आश्वासित करना,एक-एक मृदु व्यवहार घर आए कुछ साहित्यकारों से मुझे परिचित करवाना,मेरी बेटी को रश्मि नाम देना, और बच्चों के नाम सुंदर पंक्तियाँ लिखना और मेरे नाम एक पूरी कविता....
जिसके नीचे लिखा है 'बेटी सरस्वती के प्रयाग आगमन पर' यह सबकुछ मेरे लिए अमूल्य धरोहर है। उन्होंने मुझे काव्य-संग्रह निकालने की सलाह भी दी,भूमिका वे स्वयं लिखते,पर यह नहीं हो पाया।
अंत में अपने बच्चों के दिए उत्साह और लगन के फलस्वरूप , उनके ही सहयोग से मेरा पहला काव्य-संग्रह "नदी पुकारे सागर" प्रकाशित हुआ। उस संग्रह का नामकरण मेरे परम आदरनिये गुरु भूतपूर्व अध्यक्ष एवं प्रोफेसर डॉ पूर्णेंदु ने किया....भूमिका की जगह उन्होंने लिखा " इन रचनाओं के बीच से गुजरते हुए...." मैं हमेशा आभारी रहूंगी-
" कौन से क्षण थे वे
जो अपनी अस्मिता लिए
समस्त आपाधापी को परे हटा
अनायास ही अंकित होते गए
मैं तो केवल माध्यम बनी............!

Friday, September 5, 2008

तुम्हारे लिए....


सपने देखो तो ज़रूर
समझो सपनों की भाषा
निश्चित तुमको मिलेगी मंजिल
पूरी होगी आशा !
सपने साथ में हैं गर तेरे
तू मजबूर नहीं है
तूफानों से मत घबराना
मंजिल दूर नहीं है !
बड़े पते की बात है प्यारे
घबराकर मत रोना
आग में तपकर ही जो निखरे
है वही सच्चा सोना !
बुरा नहीं होता है प्यारे
आंखों का सपनाना
सपने सच भी होते हैं
यह मैंने भी है जाना !
सपने ही थे साथ सफर में
और तेरा हमसाया
कतरे की अब बात भुला दे
दरिया सामने आया !
नहीं असंभव बात ये कोई
फिर हो नई कहानी
तुम बन जाओ एक और
धीरू भाई अम्बानी !

Wednesday, August 27, 2008

मेरा मन - एक परिचय !


मेरा मन, एक पुस्तक है ,
जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर -
तुम्हीं रेखांकित हो
अक्षर-अक्षर में -
तुम्हारी ही छवि बोलती है !
तुम्ही छंद हो, तुम्ही लय हो
यह पुस्तक, तुम्हारा समन्वय है !
शरीर तो एक आवरण है
जिसे प्यार और करुणा के रंग से
सँवारने का अथक प्रयास करती हूँ ......
ताकि कभी तुम स्वतः
पुस्तक खोलने पर बाध्य हो जाओ !
फिर.............
उम्मीद है, तुम्हारी आंखों की नमी
स्वाति के बूंद-सी
- मेरे माथे पर टपकेगी !

Saturday, August 23, 2008

बादलों वाली लड़की....


आपने भी देखा होगा -

मक्खन की डली -सी उस लड़की को

जो बादलों के बीच दौड़ती है

खरगोशों के झुंड से खिलवाड़ करती है

स्याह मखमली भालुओं के बीच विचरण करती है

लुकाछिपी का खेल खेलती है

फिर अचानक पलक झपकते ही -

शिखर पर पहुँच जाती है

और कभी आंखों से कभी हाथ से

इशारा करती है -

'आकाश के आँगन में आओ

हमारी दुनिया को जानो

हमारे साथ खेलो -

निःशंक, निर्द्वंद !'

इस निश्छल अनुरोध को मानकर

हमें भी उसे निमंत्रण भेजना चाहिए

'तुम धरती पर आकर हमारी दुनिया देखो और जानो '

शायद इस मेल-जोल से

धरती - आकाश का काल्पनिक मिलन

साकार हो जाए

आनेवाले कल को कोई नया सृजन हो !

पर क्या हम इस बात का दावा कर सकते हैं

की बादलों वाली मासूम लड़की

- इंसानी रंगत वाली धरती पर

उसी प्रकार दौडेगी,खेलेगी

जैसे आकाश के आँगन में होती है

- निःशंक, निर्द्वंद !?

Wednesday, August 20, 2008

कुछ साज-तुम्हारे लिए......

(१)
डूबते चाँद का पता पूछो
एक मुसाफिर यहीं पे सोया है
नभ की खिड़की से सर टिका करके
जाने कौन सारी रात रोया है!

(2 )
तेरा ख्याल मेरे साथ लगकर सोया है
थपकियाँ देकर कहानी सुनाई है
लोरी गाकर चादर उढ़ाया है
पलकों और गालों को आँचल से पोंछा है
होठों पर संजीवनी रख दी है
शायद थोडी देर पहले यह रोया है
तेरा ख्याल साथ लगकर सोया है.....

(३)
जा रहा किस ओर तू
कुछ बोल पंछी
किस पिपासा को लिए ओ बावरा
दर्द जब इंसान हर पता नहीं
क्या हरेंगे फिर ये चंचल धवल बादल?

(४)
आओ आज की रात
हम दरवाजों को खुला छोड़ दें
खिड़कियों को बंद मत करें
हमारी अधीरता वह भांप ले
और लौट आए.............

Saturday, August 9, 2008

नन्हे पैरों के नाम.......


( १ )

हम हैं मोर,हम हैं मोर

कूदेंगे , इतरायेंगे -

पंखों का साज बजायेंगे,

आपका मन बहलाएँगे ।

हम है मोर,हम हैं मोर

नभ में बादल छाएंगे,

हम छम-छम नाच दिखायेंगे

आपको नाच सिखायेंगे ।

हम हैं गीत,हम हैं गीत

दरिया के पानी का

मौसम की रवानी का

आपको गाना सिखायेंगे ।

हम हैं धूप,हम हैं छांव

आगे बढ़ते जायेंगे

कभी नहीं घबराएंगे

आपको जीना सिखायेंगे ।


( २ )

मैं हूँ एक परी

और मेरा प्यारा नाम है गुल

गर चाहूँ तो तुंरत बना दूँ

शूल को भी मैं फूल !

चाहूँ तो पल में बिखेर दूँ

हीरे,मोती ,सोना

पर इनको संजोने में तुम

अपना समय न खोना !

अपना ' स्व ' सबकुछ होता है

' स्व' की रक्षा करना

प्यार ही जीवन-मूलमंत्र है

प्यार सभी को करना !


( ३ )

मैं हूँ रंग-बिरंगी तितली

सुनिए आप कहानी,

मैं हूँ सुंदर,मैं हूँ कोमल

मैं हूँ बड़ी सयानी

इधर-उधर मैं उड़ती - फिरती ,

करती हूँ मनमानी ! मैं हूँ.................

फूलों का रस पीती हूँ

मस्ती में मैं जीती हूँ

रस पीकर उड़ जाती हूँ

हाथ नहीं मैं आती हूँ !

मैं हूँ रंग-बिरंगी तितली........


( ४ )

बिल्ली मौसी,बिल्ली मौसी

कहो कहाँ से आती हो

घर-घर जाकर चुपके-चुपके

कितना माल उडाती हो ।

नहीं सोचना तुम्हे देखकर

मैं तुमसे डर जाती हूँ

म्याऊं- म्याऊं सुनकर तेरी

अन्दर से घबराती हूँ !

चाह यही है मेरी मौसी

जल्दी तुमसे कर लूँ मेल

फिर हमदोनों भाग-दौड़ कर

लुकाछिपी का करेंगे खेल !

Monday, August 4, 2008

डर कैसा ?


जी चाहता है -

रेशमी सपनों के पंख पैरों में बाँध लूँ

और उड़ जाऊँ

निस्सीम आकाश का विस्तार मापने

पर अगले ही क्षण डर लगता है !

आँधियों का क्या भरोसा ?

समय का एक हल्का इंगित होते ही

नभ का कोना - कोना

धूल - गर्द गुबार से ढँक जाएगा

मेरे सारे मनसूबे दिशाहीन हो जायेंगे !

पर तेरे चरण चिन्ह , मेरे हौसले को बल देते हैं

पूरे ब्रह्माण्ड में तू विद्यमान है

साथ-साथ चलता है , प्यार करता है

तो फिर , डर कैसा ?