मेरी दुनिया...

Wednesday, June 20, 2007

यह मैं हूँ...





- ज़िंदगी के मेले में - " अपनी खुशी न आए थे " पर आए . किसी ने बुलाया ' सरु ' , किसी ने ' तरु ', और इसी के साथ माता - पिता के इकलौती बेटी की एक पहचान बन गई . अपना खेल , कौतुक , कौतुहल ... मैं वह छोटी चिडिया बन जाती थी जो अपनी क्षमता से अनभिज्ञ नभ के अछोर विस्तार को माप लेना चाहती हैं .


मेरा एक प्यारा सा खेल था कुछ एक खाली कमरों में दौड़ लगते मैं ज़ोर से आवाज़ देती थी - माँ sssssssssssssssssssssssssss............. उसकी गूँज मुझे रोमांचित और विस्मृत करती थी . बाद में माँ ने मेरे प्रश्न पर बताया - मेरे साथ वह बोलती हैं . हर्षातिरेक से भर कर मैं उससे लिपट गई थी . आगे चल कर मेरी यही सोच मेरे शब्दों में उतरी -


मैंने बहुत प्यार किया हैं
अपनी माँ को , अपने दोस्तों को , पास - पड़ोस को ,
परिवार को …..
बिना सोचे समझे ख़ुद को न्योछावर किया हैं !!!
हर बार
मन की छोटी चिडिया फुर्र्र्र्र से उड़कर वहाँ पहुच जाती हैं
जहाँ बचपन बीता था
कोई पकड़ लेगा , इस बात का
डर नही लगता !
तुम मानो या न मानो
हमारे पास तितलियों के पंखो जैसे
कुछ मोहक सपने थे
सपने , जो पराये नही अपने थे .
आज हम जहाँ से गुजर रहे हैं
जिधर से गुजर रहे हैं
बेशुमार भीड़ हैं , शोर हैं , भागम भाग हैं
सभी के पास समय का आभाव हैं
किसी के पास पल दो पल ठहरना
किसी के मन की बात सुनना
इतना अवकाश हैं कहाँ ???
संबंधो के रेशमी ताने - बाने
जो भटकते मन को एक ठहराव देते थे
माथे की शिकन को
अपने स्नेहिल स्पर्श से मिटा देते थे वो अपनी अलग पहचान बनाने को
मुखौटों में जीने लगे हैं !
यहाँ हर चीज़ मुँह मांगी कीमत देकर
खरीदी जा सकती हैं
सिर्फ़ चाहने भर की बात हैं !
तुम शायद सोचते हो ,
इन सहज उपलब्धियों को देख कर
मुझे ईर्ष्या हैं , इसलिए दुःख हैं ...
किसी का सच ,
कौन पढ़ पाता हैं भला ?
और वह सच
धड़कते दिल के भीतर
बस , एक धड़कन बन कर रह जाता हैं !
इश्वर न करे , ऐसी नियति
कभी किसी को मिले
इसका दर्द मैंने सहा हैं ,
अकेलेपन को भूलने के लिए
यादों को साथी बनाया हैं
कलम से दोस्ती की हैं
अगर यह भी नही होता
तो मैं क्या करती ?
मन की दशा भरे भरे मेघों सी हैं
यह कहीं खुल कर बरस जाना चाहता हैं
छोटी चिडिया तिल्लियों को तोड़ कर
उड़ जाना चाहती हैं !




















7 comments:

Ritz said...

kalam vakai mae zubaan ka kaam karti hai aur agar jazbaat itne gehre hon to bhaavnaon ke is samudra ko shabdon ki nauka se paar karna muskil nahi .

amma bauhat achcha likhti hain aap!!!!

Anonymous said...

mann ke bhav aise utare hai kaagaz par,bahut behtarin.

masoomshayer said...

और वह सच
धड़कते दिल के भीतर
बस , एक धड़कन बन कर रह जाता हैं !

is sach ko sada dhadkane dena bahut bahut bahut achee hai ye batcheet phir padhoonga jeewan ke badalte swaroop ko

Anil masoomshayer

रंजू भाटिया said...

मन की दशा भरे भरे मेघों सी हैं
यह कहीं खुल कर बरस जाना चाहता हैं
छोटी चिडिया तिल्लियों को तोड़ कर
उड़ जाना चाहती हैं !

बहुत खूब

मुकेश कुमार सिन्हा said...

aapke kavita ke liye comments likhna surya ko diya dikhane ke saman hai....isliye main koi comment post nahi karta........maaf karna amma.......!!

mukesh

डाॅ रामजी गिरि said...

"अकेलेपन को भूलने के लिए
यादों को साथी बनाया हैं
कलम से दोस्ती की हैं
अगर यह भी नही होता
तो मैं क्या करती "

अपने दिल-ओ- गुबार को खूबसूरत लफ्जों का जामा पहना कर आपने दिल को छूने वाली रचना को जन्म दिया है....काफी कुछ अपनी बात -सी लगी..

vinodbissa said...

मन की भावनाओं, पुराने समय की सोच व वर्तमान समय की स्तिथि का अच्छा विश्लेषण है ...सफल रचना है ...सरस्वती जी शुभकामनाएं.............