मेरी दुनिया...

Tuesday, March 11, 2008

दो पंछी


एक अकेला पंछी
पिंजरे मैं बैठा कुछ गाता था
गाते-गाते लौह तीलियों पर
सर को टकराता था!
नीले नभ मैं उड़ता-फिरता
पंछी एक वहाँ आया
क्या संयोग था दोनों को,
इक-दूजे से मिलना भाया
मीठी वाणी में बनपाखी ने मनोहार किया उससे
चलो मीत तुम संग हमारे
साथ रहेंगे मिल-जुल के
पिंजरे का पंछी बोला-
मैं पाउँगा फिर ठौर कहाँ
कहाँ मिलेगा दाना-पानी
भटकूँगा मैं यहाँ-वहाँ
बंधू!तुम ही आ जाओ,
हर सुख-दुःख बाँट जियेंगे हम
हिम्मत अपनी दुगुनी होगी
मौत भी आये तो क्या गम
मीठे सुर में गाकर अपना गीत सुनाऊंगा तुमको
अपने मन का हाल सुनकर मीत बनाऊंगा तुमको...
बनपाखी उकता कर बोला - नहीं सीखना ऐसे गीत
गाकर जिसको मन बोझिल हो,
प्राणों में भर जाये टीस
आँसू पी कर होठों पर बरबस लाना फीकी मुस्कान
नहीं चाहिए ऐसा जीवन,नहीं चाहिए ऐसा गान...
तुम गाते रहते हो केवल,
औरों के रटवाये गीत
मैं अपनी धुन का मतवाला
गाता हूँ मस्ती के गीत!
तोड़ तीलियाँ बाहर आओ
ठौर नहीं ये कारागार
पंख पसारे,हँसते-गाते
मिलकर चलें क्षितिज के पार...
रुंधे कंठ से पिंजरे का पंछी बोला-
अब क्या होगा?
लिखा भाग्य में जो विधि ने
वह मन मारे सहना होगा.
मैं कैदी हूँ,आजादी का सपना भी अब क्या पालूँ
शक्तिहीन हैं पंख हमारे
संग तुम्हारे कहाँ चलूँ!
इस अम्बर के आँगन को,
मैं पार कहाँ कर पाउँगा
खो जाऊंगा अटक-भटक कर
डर से ही मर जाऊंगा
चाहो अगर तो तुम्ही मेरे पास रहो
मितवा मेरे!
शायद साथ तुमारे रह कुछ सीख सकूं धीरे-धीरे...
बनपाखी के चोंच हिले,मन भर आया थी मजबूरी
पिंजरे का पंछी बोला-हम मिटा न पाएंगे दूरी!
दूरी थी प्रारब्ध,बिचारे इसका लेख मिटा न सके
पंख रहे लाचार फडकते
पास-पास भी आ न सके
लौह-तीलियों को छूकर बनपाखी उडा गगन की ओर
पिंजरे का पंछी अकुलाया भींग गए नैनो के कोर!