मेरी दुनिया...

Saturday, December 1, 2007

"बेटी सरस्वती (यानी मैं) के प्रयाग आगमन पर!"


विजयादशमी का दिन था वह। पितृवत पन्त के पास बैठी थी मैं , कितनी कवितायेँ गा-गा कर उन्होने सुनाई।मेरे आग्रह पर - यह सुप्रसिद्ध रचना भी सुनाई "यह धरती कितना देती हैं" मेरी छोटी बेटी मिन्नी को नाम दिया - रश्मि। हमारी उपस्थिति में वहाँ प्रेमचंद जी के सुपुत्र अमृतराय जी आये तो पन्त जी ने परिचय दिया - "आओ अमृत,इनसे मिलो ,यह मेरी बेटी सरस्वती हैं.मुझसे मिलने सपरिवार आई हैं." महादेवी जी से फ़ोन पर उनकी बातें हुई.कभी-कभी यथार्थ भी स्वप्नवत लगता है-हम वहाँ हो कर भी जैसे किसी स्वप्नलोक में विचरण कर रहे थे...उनके आग्रह पर खाया,साथ-साथ चाय पी। "भरतमिलाप" देखने चलने को उन्होने कहा पर हमें लौटना था और...!हमें विदा करने आये तो अपनी गेट पे तब तक खड़े रहे जब तक हम आँखों से ओझल न हुए । "लोकायतन" की पहली प्रति मुझे उपहार स्वरूप भेजी । "चिदाम्बरा" पर जब पुरस्कार मिला तो मुझे लिख भेजा - "कुछ मांगो"।
दिल के दौरे के बाद जब डॉक्टर ने उन्हें लिखने को मना किया तो उनके पत्रों का आना कम हो गया और फिर... वे रहे नहीं। दाता की अनुपम देन है यह कि मेरी ज़िन्दगी की पुस्तक में इतने मधुरतम क्षण अंकित हैं।

Tuesday, November 6, 2007

अनुरोध {एक माँ की हृदयस्पर्शी भावना जिसका बेटा खेलते खेलते चला गया }

तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास
तुम अभी कुछ और बैठो......
भोर की पहली किरण के
गीत पावन खो गये
चाँद सिहरा सहम कर
सारे सितारे सो गये
स्वप्न के वीरान घर से
उठ रहा निः श्वास
तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास......
साध के बिखरे सुमन
पूजा विखंडित हो गयी
हाथ फैले रह गये
प्रतिमा विसर्जित हो गयी
धूम बन कर उड़ गया
मन का मधुर विश्वास
तुम अभी कुछ और बैठो...
जिस नए अंकुर को पा कर
बैठ कल्पित छाँव में
मैंने बाँधे आस के
नूपुर विहस कर पाँव में
दे वही अश्रु की थाती चल दिया चुपचाप
तुम अभी कुछ और बैठो...
एक लम्बी सी कहानी
भूमिका बन रह गयी
धूप छाँही रंग का
हर ढंग दुनिया कह गयी
मौन धरती रह गयी
गुमसुम रहा आकाश
तुम अभी कुछ और बैठो...
दो घडी भर के लिए
तुमसे यही अनुरोध हैं
कल की बातों का भला
किसको हुआ कब बोध हैं
पुण्य सारा लूट कर
जग ने दिया अभिशाप
तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास........
(नदी पुकारे सागर)

Monday, November 5, 2007

हमारे प्राण जलते हैं


हमारे प्राण जलते हैं
वहाँ उस ओर धरती की
सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ अरमान पलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ वैभव बरसता है ,खनक सिक्कों की होती है
जहाँ इंसान की इंसानियत बेफिक्र सोती है
वहाँ उस ओर धरती की
सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ सपने मचलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ चाँदी की चकमक में ह्रदय का प्यार खो जाता
जहाँ भगवन भी छलछद्म में मजबूर हो जाता
वहाँ उस ओर धरती की सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ मानव बदलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ पर जन्म लेते ही खुली तकदीर सो जाती
जहाँ पर ज़िन्दगी की सुबह में ही शाम हो जाती
वहाँ उस ओर धरती की सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ दिनमान ढलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !!!
(नदी पुकारे सागर )

..."प्यार एक खुशबू हैं"


मेरी आंखों में एक नदी बहती हैं...
मेरी सासों में कोई साज़ बजता हैं...
मेरा मन कस्तूरी का मृग...
मेरी सोच ,
" रंगियो चोल रंग चीर"
इस से अधिक मेरा कोई परिचय नही...
अगर तुम जानते हो यह बात तो निश्चित ही मुझे पहचान लोगे...
कहीं कोई व्यवधान नही....
नदी के पानी में उतर कर हंस बन जाना...
साँसों के बजते साज़ पर कोई मधुर गीत गाना...
कस्तूरी के मृग को आहत मत होने देना....
मेरी सोच के रंग में रंग कर...
मेरी पहचान का हिस्सा बन कर...
अपनी पहचान मेरे पास रख देना...
ज़िंदगी के रास्ते भले ही लंबे हो...
कौन कहाँ पे मुड़ जाये यह कोई नही जानता...
लोग खाली हाथ आते हैं , खाली हाथ जाते हैं...
सब कुछ यही पर छोड़ कर जाना हैं...
पर मैं एक चीज़ ले जाने को सोचती हूँ...
शायद तुमने बात समझ ली...
पहचान पास ही रहने दो...
"प्यार एक खुशबू हैं"
इस एहसास को साथ लेकर ही
यहाँ से जाना चाहती हूँ....

नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...


न पूछो ये हमसे , कहाँ क्या हुआ है ...
बताना है मुश्किल , कहाँ क्या हुआ है ...
कुछ तो हुआ है , कहीं तो हुआ है ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
न बादल ही गरजे , न बरसा है पानी ...
न तुमने कही मुझसे कोई कहानी ...
मगर साँसों की लय थाम सी गयी हा ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
यहाँ दोस्ती संगदिली में बदलती ...
सरल कामनाएं भी पग पग पर छलती ...
यहाँ पाने का नाम कोरा भरम है ..
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
न मंजिल है कोई न कोई डगर है ...
मैं जाऊं कहाँ ये बेगाना शहर है ...
उम्मीदें हैं औंधी पड़ी सोयी सोयी ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
ये दुनिया लगी मुझको इक जादू - नगरी ...
छलकती रही मेरे नैनो की डगरी ...
भरी भीड़ में भी रहा में अकेला ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
हुआ कितना तनहा विकल मन का कोना ...
गया दूर चुपके से सपना सलोना ...
बड़ी संगदिल हैं कफस की सलाखें ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...

Saturday, November 3, 2007

विस्मय


आदमी कल्पना करता हैं
यंत्रों की इस तेज भागती दुनिया के शोरों गुल मे बैठ कर
ख्यालों की पिटारी खोलता हैं
आदमी कल्पना करता हैं...
आपाधापी मे पता ही नहीं चलता
सुबह कब दोपहरी कब शाम मे बदली
और रात...जारी हैं
अपनी ही साँसों के क्रमिक कड़ी मे फंसा
बेचारा आदमी!
निरुपाय विवश सा ख्यालों की पिटारी टटोलता हैं
आदमी कल्पना करता हैं...
सच से घबराकर
भ्रम से आँखें चुरा कर
टूटे दरके रिश्तों की नमी पे हाथ रखे
बचे-खुचे सपनो को बोने की कोशिश करता हैं
नए अंकुर देखता हैं,खुश होता हैं...
अगली बहार मे जो छतनार छाँव फैलेगी
उसके नीचे बैठकर रेशमी ख्यालों मे रंग भरुंगा
अचानक आवाज़ आती हैं
"तुम वहीं के वहीं रहे
विस्मय होता हैं तुम्हारी इस सोच पर"
और याद आता हैं
"आदमी भी क्या अनोखा जीव होता हैं
उलझनें अपनी बना कर आप ही फँसता
और फिर बेचैन होजगता न सोता हैं"......
मूरख!किसने देखी हैं अगली बहार
जो इतने मनोयोग से ताने बाने बुनता हैं
आदमी कल्पना करता हैं...!!!

मन का रथ



मन का रथ जब निकला
आए बुद्धि - विवेक
रोका टोका समझाया
दी सीख अनेक
लेकिन मन ने एक ना मानी
रथ लेकर निकल पड़ा
झटक दिया बातों को जिद पर रहा अड़ा
सोचा मैं मतवाला पंछी नील गगन का
कौन भला रोकेगा झोंका मस्त पवन का
जब चाहे मुट्ठी में भर लूं चाँद सितारे
मौजों से कहना होगा कि मुझे पुकारे
मन की सोच चली निर्भय हो आगे - आगे
अलग हो गए वो अपने जो रास थे थामे
यह थी उनकी लाचारी
कुछ कर न सके वो
चाहा फिर भी
नही वेग को पकड़ सके वो
समय हँसा...
रे मूरख ! अब तू पछतायेगा॥
टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा...
सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना
समझ जिसे मधुरस मानव प्याला पीता हैं
वो केवल सपनो में ही जीता मरता हैं
अनावरण जब हुआ सत्य का,
मन घबराया
रास हाथ से छूट गई कुछ समझ न आया
यायावर पछताया ,
रोया फूट फूट कर
रथ के पहिये अलग हो गए टूट टूट कर
रही सिसकती पास ही खड़ी बुद्धि सहम कर
और विवेक अकुलाया मन के गले लिपट कर
लिए मलिन मुख नीरवता आ गयी वहाँ पर
लहू-लुहान मन को समझाया अंग लगा कर
धीरे से बोली-
अब मिल-जुल साथ ही रहना
फिर होगा रथ ,
तीनो मिल कर आगे बढ़ना
कोई गलत कदम अक्सर पथ से भटकाता हैं
मनमानी करने का फल फिर सामने आता हैं..

Friday, November 2, 2007

माँ की आँखें...


तुम यहाँ जब भी आओ
आज या कल या बरसों बाद
पाओगे दरवाज़े पर बैठी दो प्रतीक्षित आँखें
खारे पानी में तिरती
दो बेचैन पुतलियाँ एक माँ की...
जिसका बेटा कह कर गया
"ठहरो माँ मैं अभी आया"
चाहे तुम जब भी आओ..
आज या कल या बरसों बाद....
कलरव में डूबी भोर हो...
या अंगारे उगलती दोपहर...
बरसती हुई शाम हो या ठिठुरती हुई रात...
ये प्रतीक्षारत आँखें
कभी हटती नहीं, थकती नहीं, झिपती नहीं...
ध्यानावस्थित बैठी रहती हैं...
निराश नहीं होती...
ये दो आँखें,माँ की हैं न...
जिसका बेटा कह कर गया...
"ठहरो माँ मैं अभी आया"
तुम यहाँ जब भी आओ
आज या कल या बरसों बाद
पाओगे किसी बेसहारा टूटे सितारे सी एक भटकती आत्मा...
घर के इर्द गिर्द,पास पड़ोस पिछवाडे..
रूंधे कंठ से घर लौट आने वाले को आवाज़ देती हुई
दरवाज़े पर बैठी दो प्रतीक्षित आँखें...
खारे पानी में तिरती दो बेचैन पुतलियाँ'
एक माँ की...
जिसका बेटा कह कर गया
"ठहरो माँ मैं अभी आया"
- सरस्वती प्रसाद
(प्रकाशित "नदी पुकारे सागर" में)

Thursday, June 21, 2007

तुमसे कहना हैं...






" उडती उमंगो कि कहानी-


सुनानी होगी ज़ुबानी,


गूंजती तरंगो कि बात-


बांटनी होगी सौगात,


मन कि पिटारी मे क्या है-बतलाओ तो?


नही समझ पाऊं तो,बैठ कर समझाओ तो!


वर्ना पछताओगे


चुप नही रह पाओगे


सच कहती हूँ यार-


मुझे, ढूँढ़ते रह जाओगे!


प्यार "

Wednesday, June 20, 2007

यह मैं हूँ...





- ज़िंदगी के मेले में - " अपनी खुशी न आए थे " पर आए . किसी ने बुलाया ' सरु ' , किसी ने ' तरु ', और इसी के साथ माता - पिता के इकलौती बेटी की एक पहचान बन गई . अपना खेल , कौतुक , कौतुहल ... मैं वह छोटी चिडिया बन जाती थी जो अपनी क्षमता से अनभिज्ञ नभ के अछोर विस्तार को माप लेना चाहती हैं .


मेरा एक प्यारा सा खेल था कुछ एक खाली कमरों में दौड़ लगते मैं ज़ोर से आवाज़ देती थी - माँ sssssssssssssssssssssssssss............. उसकी गूँज मुझे रोमांचित और विस्मृत करती थी . बाद में माँ ने मेरे प्रश्न पर बताया - मेरे साथ वह बोलती हैं . हर्षातिरेक से भर कर मैं उससे लिपट गई थी . आगे चल कर मेरी यही सोच मेरे शब्दों में उतरी -


मैंने बहुत प्यार किया हैं
अपनी माँ को , अपने दोस्तों को , पास - पड़ोस को ,
परिवार को …..
बिना सोचे समझे ख़ुद को न्योछावर किया हैं !!!
हर बार
मन की छोटी चिडिया फुर्र्र्र्र से उड़कर वहाँ पहुच जाती हैं
जहाँ बचपन बीता था
कोई पकड़ लेगा , इस बात का
डर नही लगता !
तुम मानो या न मानो
हमारे पास तितलियों के पंखो जैसे
कुछ मोहक सपने थे
सपने , जो पराये नही अपने थे .
आज हम जहाँ से गुजर रहे हैं
जिधर से गुजर रहे हैं
बेशुमार भीड़ हैं , शोर हैं , भागम भाग हैं
सभी के पास समय का आभाव हैं
किसी के पास पल दो पल ठहरना
किसी के मन की बात सुनना
इतना अवकाश हैं कहाँ ???
संबंधो के रेशमी ताने - बाने
जो भटकते मन को एक ठहराव देते थे
माथे की शिकन को
अपने स्नेहिल स्पर्श से मिटा देते थे वो अपनी अलग पहचान बनाने को
मुखौटों में जीने लगे हैं !
यहाँ हर चीज़ मुँह मांगी कीमत देकर
खरीदी जा सकती हैं
सिर्फ़ चाहने भर की बात हैं !
तुम शायद सोचते हो ,
इन सहज उपलब्धियों को देख कर
मुझे ईर्ष्या हैं , इसलिए दुःख हैं ...
किसी का सच ,
कौन पढ़ पाता हैं भला ?
और वह सच
धड़कते दिल के भीतर
बस , एक धड़कन बन कर रह जाता हैं !
इश्वर न करे , ऐसी नियति
कभी किसी को मिले
इसका दर्द मैंने सहा हैं ,
अकेलेपन को भूलने के लिए
यादों को साथी बनाया हैं
कलम से दोस्ती की हैं
अगर यह भी नही होता
तो मैं क्या करती ?
मन की दशा भरे भरे मेघों सी हैं
यह कहीं खुल कर बरस जाना चाहता हैं
छोटी चिडिया तिल्लियों को तोड़ कर
उड़ जाना चाहती हैं !