मेरी दुनिया...

Saturday, July 12, 2008

बहुत दिनों बाद.....


बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ-
तकिये पर सिर टिका कर लेटी
तो पलकें गिराने का मन नहीं किया....
ये कोई नई बात नहीं थी,
बात नई यह थी-
आंखों में डाली दवा बही
बित्ते भर के फासले पर
तुम हो लेटी हुई
और मुझे दिखा एक रंग और कूची
रंग वही,जो अक्सर सभाल कर रख देती हूँ
मैं चुप, तुम्हे देखती रही-
आख़िर रहा नहीं गया,मैं बुदबुदाई -
तुम्हे रंग दूँ?
एकटक तुम मुझे देखती रही कुछेक क्षण
फिर धीरे से कहा-
क्या मैं तुम्हे बेरंग दिखती हूँ?
मैंने मन ही मन में कहा-नहीं, ऐसी तो बात नहीं,
बस , मन में आया
महज बित्ते भर के फासले से तुम बोली-'ज़रूरत नहीं'
और अगर है भी,
तो मुझमें रंग भरनेवाले बहुत हैं....
सकुचाती हुई मैं बोली,फुसफुसाती सी
मालूम है मुझे,बस मन किया
मेरे पास तो रंग भी बहुत नहीं
और कूची भी सिर्फ़ एक है
तुम जानती भी हो
वह रंग-'फीको पड़े न बरु फटे '
नाम क्या बताना?
रहीम को तो जानती ही हो
-"रहिमन धागा.....मत जोडो चटकाए
जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए!"
तुम चुपचाप मुझे देखती रही-फिर बोली
'मुझे कुछ नहीं बोलना................'
बोलना था मुझे,
पर तुम पर निरर्थक परेशानी लाद दूँ
सोच कर चुप हो गई!
अचानक तुमने करवट ले ली-
मैंने अपनी छाती सहलाई!
ख़ुद से पूछा -'क्या मेरी छाती में दर्द हो रहा है?'
ख़ुद पर चिडचिडाते हुए बड़बडाई -
तो मरो तुम!
मूर्खाधिराज ! रंग पलट दो,कूची तोड़ दो
किसी पंख फटकारते पक्षी की ताकत लगाकर
तोड़ दो जिंदगी की तीलियाँ
और उड़ जाओ!
उठ कर मैंने रंग और कूची संभाल कर रख दी
कौन जाने कभी काम आए
और इसके सिवा अपने पास है भी क्या ?
अपनी बेबसी की लम्बी साँस लेकर
तकिये पर जब फिर लेटी
तो आंखों से पानी आने लगा
' रे मन मूरख जनम गंवायो'