मेरी दुनिया...

Tuesday, July 29, 2008

प्रकोष्ठ का द्वार खोलो.........


पोर-पोर में थकान लिए,
शरीर और मन दोनों से हार कर
तुम्हारी देहरी पर बैठी हूँ
प्रकोष्ठ का द्वार खोलो.....
तमस में घिरी हूँ,कुछ दिखाई नहीं पड़ता
कहाँ जाऊं, किधर जाऊं के उलझन में घिरी हूँ
प्रभु कृपा करो
अपने प्रभामंडल का आलोक प्रसारित करो
प्रकोष्ठ ................
मेरे विनम्र निवेदन की अर्जी को
किसी पत्थर जड़ी मंजुषा में मत डालो

पढने की बारी आने तक

मैं देहरी पर बैठे-बैठे दम तोड़ दूंगी

मुझे तुम्हारी समीपता चाहिए

मेरा आग्रह मानकर मुझे अपना लो

प्रकोष्ठ का..........

बैठ गई हूँ तो स्वयं उठ भी नहीं सकती

यह मेरी बेबसी और लाचारी है

तुम स्वयं 'उसकी' तरह तत्परता से आकर

मुझे बांहों में भरकर उठा लो

भीतर ले जाकर मेरे सर पर हाथ रखो,सुकून दो

और इंगित करो-

कहीं किसी देहरी पर बैठने की ज़रूरत नहीं

तुम्हारा विश्राम स्थल यह रहा

मैं जानती हूँ, तुम यह करोगे

प्रकोष्ठ का द्वार खोलो !