एक दिन हलके कदम
वह मेरे एकांत में आया
पास बैठा ,
मुझ पर दृष्टि डाली॥
ऐसी दृष्टि - जिसे देख कर लगा-
अंतर की खुली देहरी पर खड़ी हो कर
आत्मा मुझे अपलक निहार रही हैं!
मेरे रोम-रोम को सींचती एक स्निग्ध शीतलता
मेरे प्राणों में उतर गयी
जाने कैसे!
उसे मेरे सूने क्षणों से लगाव
मेरी अरूचि से रुचि
उदासीनता से आसक्तिपीड़ा से प्यार हो गया ,
संवेदना की कोमल उँगलियों से छूकर वह बोला...
आओ इधर हम बातें करें
-जीवन और जगत की
धरती- आकाश की आकर्षण-विकर्षण की
सृजन की, विनाश की सृष्टि के अनंत सौन्दर्य की...
ऐ,सुन रही हो?
ध्यानावस्थित मैंने हुंकारी भरी
भीतर की शून्यता मुखर हो उठी!
लोग कहते हैं -मैं कुछ सनकी हूँ
जीवन-जगत की ठोस कर्मभूमि पर पाँव रख कर
सच्चाई से कतराती हूँ...
उसने स्नेह भरे स्वर में टोका-
सर झुका कर क्या सोचती हो?
सुन रही हो न मेरी बातें?
'हाँ' या 'ना' मुझसे कुछ भी कहते नहीं बना
क्यूँकि सुनने के बजाय मैंने केवल कहा था !
वह उठ कर चला गया
नाराज़ हो कर नहीं,
फिर आने की बात कह कर
जानती हूँ, यह भ्रम नहीं सत्य हैं
बंधू,वह कहीं नहीं मिलेगा!
फिर भी क्रम जारी हैं...