मेरी दुनिया...

Friday, July 25, 2008

दाता !


हलकी नींद के आगोश से रात १२.१५ में उठकर लिखने पर विवश सी हो गई.......


शायद मैंने हाथ बढाये थे-

दर्द का दान देकर तुमने मुझे विदा कर दिया !

यह दर्द, निर्धूम दीपशिखा के लौ की तरह

तुम्हारे मन्दिर में अहर्निश जलता है।

कौन जाने, कल की सुबह मिले ना मिले

अक्सर तुमसे कुछ कहने की तीव्रता होती है

पर.......... सोचते ही सोचते,

वृंत से टूटे सुमन की तरह

तुम्हारे चरणों में अर्पित हो जाती हूँ !