मेरी दुनिया...

Saturday, March 8, 2008

एक नयी अनुभूति



एक दिन हलके कदम


वह मेरे एकांत में आया


पास बैठा ,


मुझ पर दृष्टि डाली॥


ऐसी दृष्टि - जिसे देख कर लगा-


अंतर की खुली देहरी पर खड़ी हो कर


आत्मा मुझे अपलक निहार रही हैं!


मेरे रोम-रोम को सींचती एक स्निग्ध शीतलता


मेरे प्राणों में उतर गयी


जाने कैसे!


उसे मेरे सूने क्षणों से लगाव


मेरी अरूचि से रुचि


उदासीनता से आसक्तिपीड़ा से प्यार हो गया ,


संवेदना की कोमल उँगलियों से छूकर वह बोला...


आओ इधर हम बातें करें


-जीवन और जगत की


धरती- आकाश की आकर्षण-विकर्षण की


सृजन की, विनाश की सृष्टि के अनंत सौन्दर्य की...


ऐ,सुन रही हो?


ध्यानावस्थित मैंने हुंकारी भरी


भीतर की शून्यता मुखर हो उठी!


लोग कहते हैं -मैं कुछ सनकी हूँ


जीवन-जगत की ठोस कर्मभूमि पर पाँव रख कर


सच्चाई से कतराती हूँ...


उसने स्नेह भरे स्वर में टोका-


सर झुका कर क्या सोचती हो?


सुन रही हो न मेरी बातें?


'हाँ' या 'ना' मुझसे कुछ भी कहते नहीं बना


क्यूँकि सुनने के बजाय मैंने केवल कहा था !


वह उठ कर चला गया


नाराज़ हो कर नहीं,


फिर आने की बात कह कर


जानती हूँ, यह भ्रम नहीं सत्य हैं


बंधू,वह कहीं नहीं मिलेगा!


फिर भी क्रम जारी हैं...


1 comment:

36solutions said...

प्रणाम, गहरे भाव ।