मेरी दुनिया...

Sunday, March 16, 2008

प्रशस्ति के बादल!

प्रशस्ति के घनीभूत बादल
बड़े मोहक लगते हैं-जब छा जाते हैं
मन-मयूर कल्पना के रंगीन पंखों को खोल
बेसुध-सा नृत्य कर उठता है
और हवा के रथ पर बैठ
धरा से अम्बर तक की
परिक्रमा करता है...
फिर-पलकों को मूँद
भावों को संजो
अंतर की प्रत्येक सूक्ष्म कलियों को
खिलते हुए,झूमते हुए
विहंसते हुए देखता है!
पर,प्रशस्ति के घनीभूत बादल
अमा की रात भी बन जाते हैं
गर्जन,तर्जन,उमड़न,घुमड़न-
बिजली की कटार लिए
जिस दिन बरसते हैं,दहशत फैला देते हैं!
धरा और अम्बर को मापने वाला मन
पथभ्रांत हो जाता हैं
भावों की लड़ी टूट जाती हैं
झूमती,विहंसती कलियाँ
बिखर कर धुल में मिल जाती हैं
शेष रह जाता हैं-
गंदला पानी
कीचड़ और कीचड़!!

3 comments:

Anonymous said...

ati sundar,prashasti ke badalon ke bhram se nikalkar satya ka prastutikaran kiya hai.bahut achhi lagi kavita.

डाॅ रामजी गिरि said...

"झूमती,विहंसती कलियाँ
बिखर कर धुल में मिल जाती हैं
शेष रह जाता हैं-
गंदला पानी
कीचड़ और कीचड़!!"


बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति..

रंजू भाटिया said...

भावों की लड़ी टूट जाती हैं
झूमती,विहंसती कलियाँ
बिखर कर धुल में मिल जाती हैं
शेष रह जाता हैं-
गंदला पानी
कीचड़ और कीचड़!!

बहुत कुछ कह गयीं यह पंक्तियाँ ..भाव बहुत गहरे हैं इस रचना के !!