मेरी दुनिया...

Saturday, November 3, 2007

विस्मय


आदमी कल्पना करता हैं
यंत्रों की इस तेज भागती दुनिया के शोरों गुल मे बैठ कर
ख्यालों की पिटारी खोलता हैं
आदमी कल्पना करता हैं...
आपाधापी मे पता ही नहीं चलता
सुबह कब दोपहरी कब शाम मे बदली
और रात...जारी हैं
अपनी ही साँसों के क्रमिक कड़ी मे फंसा
बेचारा आदमी!
निरुपाय विवश सा ख्यालों की पिटारी टटोलता हैं
आदमी कल्पना करता हैं...
सच से घबराकर
भ्रम से आँखें चुरा कर
टूटे दरके रिश्तों की नमी पे हाथ रखे
बचे-खुचे सपनो को बोने की कोशिश करता हैं
नए अंकुर देखता हैं,खुश होता हैं...
अगली बहार मे जो छतनार छाँव फैलेगी
उसके नीचे बैठकर रेशमी ख्यालों मे रंग भरुंगा
अचानक आवाज़ आती हैं
"तुम वहीं के वहीं रहे
विस्मय होता हैं तुम्हारी इस सोच पर"
और याद आता हैं
"आदमी भी क्या अनोखा जीव होता हैं
उलझनें अपनी बना कर आप ही फँसता
और फिर बेचैन होजगता न सोता हैं"......
मूरख!किसने देखी हैं अगली बहार
जो इतने मनोयोग से ताने बाने बुनता हैं
आदमी कल्पना करता हैं...!!!

मन का रथ



मन का रथ जब निकला
आए बुद्धि - विवेक
रोका टोका समझाया
दी सीख अनेक
लेकिन मन ने एक ना मानी
रथ लेकर निकल पड़ा
झटक दिया बातों को जिद पर रहा अड़ा
सोचा मैं मतवाला पंछी नील गगन का
कौन भला रोकेगा झोंका मस्त पवन का
जब चाहे मुट्ठी में भर लूं चाँद सितारे
मौजों से कहना होगा कि मुझे पुकारे
मन की सोच चली निर्भय हो आगे - आगे
अलग हो गए वो अपने जो रास थे थामे
यह थी उनकी लाचारी
कुछ कर न सके वो
चाहा फिर भी
नही वेग को पकड़ सके वो
समय हँसा...
रे मूरख ! अब तू पछतायेगा॥
टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा...
सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना
समझ जिसे मधुरस मानव प्याला पीता हैं
वो केवल सपनो में ही जीता मरता हैं
अनावरण जब हुआ सत्य का,
मन घबराया
रास हाथ से छूट गई कुछ समझ न आया
यायावर पछताया ,
रोया फूट फूट कर
रथ के पहिये अलग हो गए टूट टूट कर
रही सिसकती पास ही खड़ी बुद्धि सहम कर
और विवेक अकुलाया मन के गले लिपट कर
लिए मलिन मुख नीरवता आ गयी वहाँ पर
लहू-लुहान मन को समझाया अंग लगा कर
धीरे से बोली-
अब मिल-जुल साथ ही रहना
फिर होगा रथ ,
तीनो मिल कर आगे बढ़ना
कोई गलत कदम अक्सर पथ से भटकाता हैं
मनमानी करने का फल फिर सामने आता हैं..