मेरी दुनिया...

Monday, November 5, 2007

हमारे प्राण जलते हैं


हमारे प्राण जलते हैं
वहाँ उस ओर धरती की
सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ अरमान पलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ वैभव बरसता है ,खनक सिक्कों की होती है
जहाँ इंसान की इंसानियत बेफिक्र सोती है
वहाँ उस ओर धरती की
सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ सपने मचलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ चाँदी की चकमक में ह्रदय का प्यार खो जाता
जहाँ भगवन भी छलछद्म में मजबूर हो जाता
वहाँ उस ओर धरती की सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ मानव बदलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !
जहाँ पर जन्म लेते ही खुली तकदीर सो जाती
जहाँ पर ज़िन्दगी की सुबह में ही शाम हो जाती
वहाँ उस ओर धरती की सिसकती जीर्ण छाती पर
जहाँ दिनमान ढलते हैं
हमारे प्राण जलते हैं !!!
(नदी पुकारे सागर )

..."प्यार एक खुशबू हैं"


मेरी आंखों में एक नदी बहती हैं...
मेरी सासों में कोई साज़ बजता हैं...
मेरा मन कस्तूरी का मृग...
मेरी सोच ,
" रंगियो चोल रंग चीर"
इस से अधिक मेरा कोई परिचय नही...
अगर तुम जानते हो यह बात तो निश्चित ही मुझे पहचान लोगे...
कहीं कोई व्यवधान नही....
नदी के पानी में उतर कर हंस बन जाना...
साँसों के बजते साज़ पर कोई मधुर गीत गाना...
कस्तूरी के मृग को आहत मत होने देना....
मेरी सोच के रंग में रंग कर...
मेरी पहचान का हिस्सा बन कर...
अपनी पहचान मेरे पास रख देना...
ज़िंदगी के रास्ते भले ही लंबे हो...
कौन कहाँ पे मुड़ जाये यह कोई नही जानता...
लोग खाली हाथ आते हैं , खाली हाथ जाते हैं...
सब कुछ यही पर छोड़ कर जाना हैं...
पर मैं एक चीज़ ले जाने को सोचती हूँ...
शायद तुमने बात समझ ली...
पहचान पास ही रहने दो...
"प्यार एक खुशबू हैं"
इस एहसास को साथ लेकर ही
यहाँ से जाना चाहती हूँ....

नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...


न पूछो ये हमसे , कहाँ क्या हुआ है ...
बताना है मुश्किल , कहाँ क्या हुआ है ...
कुछ तो हुआ है , कहीं तो हुआ है ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
न बादल ही गरजे , न बरसा है पानी ...
न तुमने कही मुझसे कोई कहानी ...
मगर साँसों की लय थाम सी गयी हा ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
यहाँ दोस्ती संगदिली में बदलती ...
सरल कामनाएं भी पग पग पर छलती ...
यहाँ पाने का नाम कोरा भरम है ..
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
न मंजिल है कोई न कोई डगर है ...
मैं जाऊं कहाँ ये बेगाना शहर है ...
उम्मीदें हैं औंधी पड़ी सोयी सोयी ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
ये दुनिया लगी मुझको इक जादू - नगरी ...
छलकती रही मेरे नैनो की डगरी ...
भरी भीड़ में भी रहा में अकेला ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
हुआ कितना तनहा विकल मन का कोना ...
गया दूर चुपके से सपना सलोना ...
बड़ी संगदिल हैं कफस की सलाखें ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...