मेरी दुनिया...

Wednesday, March 19, 2008

तुम्हारे बदलने का प्रमाण!

क्या यह पर्याप्त नहीं
कि मैं अपने को
बिना ज़मीन,बेघरबार,
नितांत अकेला महसूस करती हूँ!
तुम्हे नहीं पता,
मेर चारों ओर फैला अनंत आकाश,चाँद सितारे,धूप-छान्ही रंगों की आँख-मिचौली
सब अर्थ-हीन हो गए!
धरती पर खिले फूलों की गंध,
परायी लगने लगी
क्या यही प्रमाण पर्याप्त नहीं
कि मेरा अकेलापन
पारे की तरह अनियंत्रित हो गया!
नियति का यह दर्द नहीं
कि मेरे और तुम्हारे बीच
अलगाव हो गया!
किस सेतु की कल्पना करूँ?
जहाँ तुम्हारा मन मंत्रविद्ध हुआ
वहाँ अपनी पहचान बना कर
नहीं रह पाओगे!
मुझमे संवेदनाओं के सारे श्रोत सूख रहे हैं
मेरा अतीत
पत्थर हुए फूलों का संग्रहालय!
इस अंतहीन आकाश में उड़ते हुए
मेरे पंख थक चुके हैं!
कितना अजीब लगता है ये सोच कर-
मैं चक्रवात में घिरी हूँ
तुम्हारे आँखों में अनजाने संदर्भों के
गुलाब खिल रहे हैं!
तुमको कैसे घेर पायेगा
मेरी डूबी आँखों का दर्द?
तुम्हारे बदल जाने का प्रमाण
क्या यह पर्याप्त नहीं
कि मेरे पास यथार्थ और नाटक का
अंतर मिट गया!
शेष बच रहा है दृश्य...
केवल दृश्य!!