मेरी दुनिया...

Sunday, March 23, 2008

हे प्रभु!


इस विराट पृथ्वी पर फैले
संबंधों का जाल
एक दिन
व्यर्थ सिद्ध होते हैं!
फिर, किसकी खोज में भटकता हैं मन?
ये चकित,चमत्कृत आँखें
विस्मय लिए डोलती हैं!
समझ नही पाता मन
क्या ढूँढती हैं!
कौन-सी चीज़ विद्युत सी चमक कर
व्याकुलता की ओर बढ़ाती है!
ख़ुद गाए गीतों से
या तुमसे कोई गीत सुनकर
क्यों मेरा 'मैं'
कतरे-कतरे में पिघलता हैं?
अन्तर में छिपा यह स्रोत कैसा हैं
जो कल-कल निनाद करता हैं?
हे प्रभु!
मेरे पल्ले आज तक
कुछ नहीं पड़ा !