मेरी दुनिया...

Friday, May 2, 2008

विस्मृति की चादर......


समय बुनता रहा,
बड़ी घनी चादर-विस्मृति की,
और तहाकर मेरे सिरहाने धर गया
यह कहता हुआ-
ज़रूरत पड़ती है,तुमको भी होगी,
अपने ऊपर डाल लेना!
चादर को देखते हुए
मैंने कुछ कहना चाहा,
लेकिन मेरी आवाज़ को ठंड लग गई!
उसी दिन आधी रात को,
घटाएँ उठीं,बिजली कौंधी
हवा ने किवाड़ खटखटाये
और मैंने सुना-
दरवाजा खोल दो,
बूंदा बांदी शुरू हो गई है
भींग जाऊंगा
जल्दी करो,दरवाजा खोल दो।
बेसुध होकर मैं दौड़ी गई,
बंद दरवाज़े पर कान लगाया -
आवाज़ तो पहचान लूँ,
कहीं भ्रम तो नहीं!
मेरी अधीरता बढ़ती गई,
हवा किवाड़ पिटती रही,
पर वह आवाज़ बंद हो गई!
लौटकर आई तो काँप रही थी,
सिरहाने पड़ी थी चादर
समय की दी हुई-
विस्मृति की!
कि आराम पाने के लिए
अपने आपको ढँक लूँ...
चादर खोलने को हाथ बढ़ाया ही था,
तभी खिड़की खुल गई
बौराई हवा के साथ पानी की तेज बौछार .....
खिड़की जब तक बंद करूँ,
विस्मृति कि चादर भींग गई!
कमरे का अन्धकार मन को डराने लगा
पुकार कर अपने आस-पास
सबको इकठ्ठा कर लूँ,
सहसा ख्याल आया-
सुखकर होगा,
यादों के लैंप पोस्ट के नीचे बैठना
उभरते छाया चित्रों से बातें करना,
कुछ पढ़ना,कुछ लिखना,
देखते-ही-देखते -
रात कट जायेगी!