मेरी दुनिया...

Tuesday, March 25, 2008

मैं चाहूंगी, तुमसे कभी मिलूं!

(काव्यसंग्रह "नदी पुकारे सागर" से उद्धृत)

अगर तुमने कभी , नदी को गाते नही
प्रलाप करते हुए देखा हैं
और वहाँ कुछ देर ठहर कर
उस पर गौर किया हैं
तो मैं चाहूंगी तुमसे कभी मिलूं!

अगर तुमने पहाडों के
टूट - टूट कर बिखरने का दृश्य देखा हैं
और उनके आंखों की नमी महसूस की हैं
तो मैं चाहूंगी तुम्हारे पास थोडी देर बैठूं !

अगर तुमने कभी पतझड़ की आवाज़ सुनी हैं
रूदन के दर्द को पहचाना हैं
तो मैं तुम्हे अपना हमदर्द मानते हुए
तुमसे कुछ कहना चाहूंगी!

लेकिन मुझे यही नही पता , तुम हो कहाँ?
मैं तुमसे कहाँ मिलूं ?
अजनबी चेहरों की भीड़ से निकलकर
कभी सामने आओ...
तो मैं तुम्हारा स्वागत करूंगी!

ज़िंदगी प्रतिपल सरकती जा रही हैं
और मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा हैं
अँधेरा घिरते ही,
उम्मीद का दिया जला लेती हूँ
जाने कब, कहाँ पलकें बंद हो जाएं...
इससे पहले मैं चाहूंगी
तुमसे अवश्य मिलूं...
तुम्हे जी भर कर देख लूँ....

7 comments:

अमिताभ मीत said...

...................जाने कब, कहाँ पलकें बंद हो जाएं...
इससे पहले मैं चाहूंगी
तुमसे अवश्य मिलूं...
तुम्हे जी भर कर देख लूँ..................
वाह ! बहुत ही बढ़िया.

Anonymous said...

ज़िंदगी प्रतिपल सरकती जा रही हैं
और मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा हैं
अँधेरा घिरते ही,
उम्मीद का दिया जला लेती हूँ
जाने कब, कहाँ पलकें बंद हो जाएं...
इससे पहले मैं चाहूंगी
तुमसे अवश्य मिलूं...
तुम्हे जी भर कर देख लूँ....
bahut gehre bhav hai,dil ko chu gaye,itni khubsurat kavita ki tarif ke liye alfaz bhi nahi hai.apratim.

सरस्वती प्रसाद said...

शुक्रिया ...

masoomshayer said...

bahut achhe shabd hain
tumheree baat tumahree kavita mujhe band letee hai
kitnee tejee se bhee bhagta rahoon is ke pas rukta zaroor hoon
Anil masoomshayer

vinodbissa said...

ह्रदय स्पर्शी कविता है मन के तारों को झकझोर देती है॰॰॰॰॰॰॰
बहुत सलीके से मनोभावों को शब्द दिये हैं आपने॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ शुभकामनायें॰॰॰॰॰

डाॅ रामजी गिरि said...

नदी का प्रलाप... पहाड़ का बिखरना ... पतझड़ का रुदन ---एकदम उद्वेलित कर देने वाले बिम्बों का प्रयोग किया है आपने.
संवेदना के मर्म को आलोडित करती है आपकी रचना ..

रंजू भाटिया said...

ज़िंदगी प्रतिपल सरकती जा रही हैं
और मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा हैं
अँधेरा घिरते ही,
उम्मीद का दिया जला लेती हूँ
जाने कब, कहाँ पलकें बंद हो जाएं...
इससे पहले मैं चाहूंगी
तुमसे अवश्य मिलूं...
तुम्हे जी भर कर देख लूँ....

बहुत ही अच्छा लिखती हैं आप ..दिल को छू लेते है शब्द