(संपादक "श्री अम्बुज शर्मा" के अनुरोध पर -
उन्होंने इस कविता को माँगा था, अपनी पत्रिका "नैन्सी " के लिए (हिन्दी दिवस विशेषांक) )
राष्ट्र कवि दिनकर ने लिखा हैं-
"प्रभु की जिसपर कृपा होती हैं
दर्द उसके दरवाज़े
दस्तक देता हैं....."
पंक्तियों के मर्म की जब परतें खुली,
अंतस के निविड़ अन्धकार मे,
किरणें कौंधी!
मैं अवाक्! निश्चेष्ट !
अप्रतिम छवि को
पलकों मे भरती रही....
भीतर से विगलीत आवाज़ आई -
"दाता तेरी करुणा का जवाब नही"
सहसा महसूस हुआ ,
दर्द का रिश्ता
हमारे अन्दर जीता हैं
दर्द की मार्मिक लय
आस-पास गूंजती हैं
दर्द का कड़वा धुआं ,
साँसों मे घुटन भरता हैं
ओह!
अनदेखा, गुमनाम होकर भी
अन्तर की गहराइयों मे बेबस बैठा
कोई फूट-फूट कर रोता हैं!
रिश्तों की डोर
मेरी आत्मा से बंधी हैं ,
अपना हो या और किसी का -
चाहे - अनचाहे मैं भंवर मे फँस जाती हूँ !
छाती की धुकधुकी बढ़ जाती हैं,
घबरा कर ,
अनदेखे , अनजाने को
बाँहों मे भर कर ,
सिसकियों मे डूब जाती हूँ !
लोग कहते हैं-
मुझे सोचने की बीमारी हैं,
मैं लोगों की बातों का उत्तर
नहीं दे पाती!
अचानक, ये मुझे क्या हो गया हैं,
शायद....
दर्द के इसी रिश्ते को लोग
"विश्व-बंधुत्व " की भावना कहते हैं,
तो देर किस बात की बंधु ?
दो कदम तुम चलो ,
दो कदम हम....
और इसी रिश्ते के नाम पर
पथ बंधु बन जाएँ !
जीवन की डगर को
सहयात्री बन काट लेंगे...
दर्द को हम बाँट लेंगे.....!
Friday, March 28, 2008
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5 comments:
दर्द का रिश्ता
हमारे अन्दर जीता हैं
दर्द की मार्मिक लय
आस-पास गूंजती हैं
दर्द का कड़वा धुआं ,
साँसों मे घुटन भरता हैं
ओह!
अनदेखा, गुमनाम होकर भी
अन्तर की गहराइयों मे बेबस बैठा
कोई फूट-फूट कर रोता हैं!
रिश्तों की डोर
मेरी आत्मा से बंधी हैं ,
अपना हो या और किसी का -
बहुत ही दिल के करीब लगी आपकी यह पंक्तियाँ बहुत ही भावपूर्ण रचना है यह
अनदेखे , अनजाने को
बाहों मे भर कर ,
सिसकियों मे डूब जाती हूँ !
लोग कहते हैं-
मुझे सोचने की बीमारी हैं,
मैं लोगों की बातो का उत्तर
नही दे पाती!
अचानक, ये मुझे क्या हो गया हैं,
शायद....
दर्द के इसी रिश्ते को लोग
"विश्व-बंधुत्व " की भावना कहते हैं,
तो देर किस बात की बंधू?
दो कदम तुम चलो ,
दो कदम हम....
और इसी रिश्ते के नाम पर
पथ बंधू बन जाएँ !
जीवन की डगर को
सहयात्री बन काट लेंगे...
दर्द को हम बाँट लेंगे.....!
Bahut Khub, Mai kebal itna hi kah sakta hu ki apki kavita ke upar comment kanne ki kaviliyat abhi mujh me nahi.
--दर्द के इसी रिश्ते को लोग
"विश्व-बंधुत्व " की भावना कहते हैं,--
दर्द का इस नए मायने से रू-बरु होकर अंतस उजास से भर गया.बहुत ही अद्भुत दृष्टिकोण है विश्व -बंधुत्व का...
दर्द के इसी रिश्ते को लोग
"विश्व-बंधुत्व " की भावना कहते हैं,
तो देर किस बात की बंधू?
दो कदम तुम चलो ,
दो कदम हम....
और इसी रिश्ते के नाम पर
पथ बंधू बन जाएँ !
जीवन की डगर को
सहयात्री बन काट लेंगे...
दर्द को हम बाँट लेंगे.....!
bahut sahi kaha sundar
बहुत गहराई ली हुई रचना है ..... समस्या,दर्द और समाधान सभी है आपकी इस कृति में ....... बहुत ही प्रभावशाली है यह ''दर्द का रिश्ता'' कविता ......शुभकामनाएं.........
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