मन को एक बांसुरी कि तलाश थी,
गीतों कि रिमझिम में-
जीवन भर भींगते रहने के लिए,
वह मिली और टूट गई!
वे सारे गीत,
जिन्हें गाकर गीतों कि रिमझिम में भींगना था ,
अन्गाए बिखर गए!
एक छोटी-सी बांसुरी को,
पता नहीं कैसे-
मैंने जीवन भर का संबल मान लिया था!
गीतों कि रिमझिम में-
जीवन भर भींगते रहने के लिए,
वह मिली और टूट गई!
वे सारे गीत,
जिन्हें गाकर गीतों कि रिमझिम में भींगना था ,
अन्गाए बिखर गए!
एक छोटी-सी बांसुरी को,
पता नहीं कैसे-
मैंने जीवन भर का संबल मान लिया था!
6 comments:
आह ! सच. एकदम सच. ऐसा क्यों होता है ??
ye bahut sundar likha hai saraswati ji..
aap kee har kalpna sharrdha yogy hai kuch naya likhne ka man detee hai
Anil
कभी कभी येसा होता है की जिसे हम अपने जीवन का आधार मान कर जीते रहते है, वो असमय ही साथ छोड़ जाते है, और एक अरसे बाद जब हम उस अधार के बगैर जीना सिख लेते है तो हमें महसूस होता है की रास्ते और भी है मंजिल तक पहुचने के, हम तो बेबजह ही विश्वास खोये जा रहे थे |Ek behtar kavita.
बहुत ही सहज शब्दों में दिल के टूटे तारों को छेड़ा है आपने..
पर मन के बांसुरी की लय तो कभी नहीं टूटती ,फिर ऐसी बांसुरी- मरीचिका के पीछे मोह क्यों?
bahut gehra marm chod gayi kavita,bahut gehre bhav hai,kabhi kabhi shayad ham sab ke saath aisa hota hai,bahut sundar kavita.
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