मेरी दुनिया...

Sunday, March 16, 2008

प्रशस्ति के बादल!

प्रशस्ति के घनीभूत बादल
बड़े मोहक लगते हैं-जब छा जाते हैं
मन-मयूर कल्पना के रंगीन पंखों को खोल
बेसुध-सा नृत्य कर उठता है
और हवा के रथ पर बैठ
धरा से अम्बर तक की
परिक्रमा करता है...
फिर-पलकों को मूँद
भावों को संजो
अंतर की प्रत्येक सूक्ष्म कलियों को
खिलते हुए,झूमते हुए
विहंसते हुए देखता है!
पर,प्रशस्ति के घनीभूत बादल
अमा की रात भी बन जाते हैं
गर्जन,तर्जन,उमड़न,घुमड़न-
बिजली की कटार लिए
जिस दिन बरसते हैं,दहशत फैला देते हैं!
धरा और अम्बर को मापने वाला मन
पथभ्रांत हो जाता हैं
भावों की लड़ी टूट जाती हैं
झूमती,विहंसती कलियाँ
बिखर कर धुल में मिल जाती हैं
शेष रह जाता हैं-
गंदला पानी
कीचड़ और कीचड़!!

Saturday, March 15, 2008

भुला देना...

गर कभी तुमसे रूठ जाऊं
तो तुम मना लेना...
मेरी गुस्ताखियों को दिल से
तुम भुला देना..

मैं कभी तुमसे अलग रह तो नहीं सकती
किसी कारण से बिछड़ जाऊं
तो तुम सदा देना..

जाने कितना तुमसे कहना है
सुनना है अभी
बातों के बीच मे सो जाऊं
तो तुम जगा देना..

थक गयी हूँ मैं बहुत दूर से आते आते
अब तेरी बाहों मे गिर जाऊं
तो तुम उठा लेना...

मेरा बचपन ही मेरे साथ रहा है अब तक
तुम भी आपने भोले बचपन को
न जुदा करना

गर कभी तुमसे रूठ जाऊं
तो तुम मना लेना...
मेरी गुस्ताखियों को दिल से तुम भूला देना.

Tuesday, March 11, 2008

दो पंछी


एक अकेला पंछी
पिंजरे मैं बैठा कुछ गाता था
गाते-गाते लौह तीलियों पर
सर को टकराता था!
नीले नभ मैं उड़ता-फिरता
पंछी एक वहाँ आया
क्या संयोग था दोनों को,
इक-दूजे से मिलना भाया
मीठी वाणी में बनपाखी ने मनोहार किया उससे
चलो मीत तुम संग हमारे
साथ रहेंगे मिल-जुल के
पिंजरे का पंछी बोला-
मैं पाउँगा फिर ठौर कहाँ
कहाँ मिलेगा दाना-पानी
भटकूँगा मैं यहाँ-वहाँ
बंधू!तुम ही आ जाओ,
हर सुख-दुःख बाँट जियेंगे हम
हिम्मत अपनी दुगुनी होगी
मौत भी आये तो क्या गम
मीठे सुर में गाकर अपना गीत सुनाऊंगा तुमको
अपने मन का हाल सुनकर मीत बनाऊंगा तुमको...
बनपाखी उकता कर बोला - नहीं सीखना ऐसे गीत
गाकर जिसको मन बोझिल हो,
प्राणों में भर जाये टीस
आँसू पी कर होठों पर बरबस लाना फीकी मुस्कान
नहीं चाहिए ऐसा जीवन,नहीं चाहिए ऐसा गान...
तुम गाते रहते हो केवल,
औरों के रटवाये गीत
मैं अपनी धुन का मतवाला
गाता हूँ मस्ती के गीत!
तोड़ तीलियाँ बाहर आओ
ठौर नहीं ये कारागार
पंख पसारे,हँसते-गाते
मिलकर चलें क्षितिज के पार...
रुंधे कंठ से पिंजरे का पंछी बोला-
अब क्या होगा?
लिखा भाग्य में जो विधि ने
वह मन मारे सहना होगा.
मैं कैदी हूँ,आजादी का सपना भी अब क्या पालूँ
शक्तिहीन हैं पंख हमारे
संग तुम्हारे कहाँ चलूँ!
इस अम्बर के आँगन को,
मैं पार कहाँ कर पाउँगा
खो जाऊंगा अटक-भटक कर
डर से ही मर जाऊंगा
चाहो अगर तो तुम्ही मेरे पास रहो
मितवा मेरे!
शायद साथ तुमारे रह कुछ सीख सकूं धीरे-धीरे...
बनपाखी के चोंच हिले,मन भर आया थी मजबूरी
पिंजरे का पंछी बोला-हम मिटा न पाएंगे दूरी!
दूरी थी प्रारब्ध,बिचारे इसका लेख मिटा न सके
पंख रहे लाचार फडकते
पास-पास भी आ न सके
लौह-तीलियों को छूकर बनपाखी उडा गगन की ओर
पिंजरे का पंछी अकुलाया भींग गए नैनो के कोर!

Saturday, March 8, 2008

एक नयी अनुभूति



एक दिन हलके कदम


वह मेरे एकांत में आया


पास बैठा ,


मुझ पर दृष्टि डाली॥


ऐसी दृष्टि - जिसे देख कर लगा-


अंतर की खुली देहरी पर खड़ी हो कर


आत्मा मुझे अपलक निहार रही हैं!


मेरे रोम-रोम को सींचती एक स्निग्ध शीतलता


मेरे प्राणों में उतर गयी


जाने कैसे!


उसे मेरे सूने क्षणों से लगाव


मेरी अरूचि से रुचि


उदासीनता से आसक्तिपीड़ा से प्यार हो गया ,


संवेदना की कोमल उँगलियों से छूकर वह बोला...


आओ इधर हम बातें करें


-जीवन और जगत की


धरती- आकाश की आकर्षण-विकर्षण की


सृजन की, विनाश की सृष्टि के अनंत सौन्दर्य की...


ऐ,सुन रही हो?


ध्यानावस्थित मैंने हुंकारी भरी


भीतर की शून्यता मुखर हो उठी!


लोग कहते हैं -मैं कुछ सनकी हूँ


जीवन-जगत की ठोस कर्मभूमि पर पाँव रख कर


सच्चाई से कतराती हूँ...


उसने स्नेह भरे स्वर में टोका-


सर झुका कर क्या सोचती हो?


सुन रही हो न मेरी बातें?


'हाँ' या 'ना' मुझसे कुछ भी कहते नहीं बना


क्यूँकि सुनने के बजाय मैंने केवल कहा था !


वह उठ कर चला गया


नाराज़ हो कर नहीं,


फिर आने की बात कह कर


जानती हूँ, यह भ्रम नहीं सत्य हैं


बंधू,वह कहीं नहीं मिलेगा!


फिर भी क्रम जारी हैं...


मन न लगे, तो....



मन न लगे, तो कुछ गा....
दिनों से छूटे फूटे काम को
मन लगा कर निपटा, ताज़गी मिलेगी...
किसी प्रिय साथी से हाथ मिला, आनंद मिलेगा...
यह भी नहीं -
तो कोई चित्र बना,
उसमे रंग भरने का काम कर...
समय कब कैसे निकल गया, मालूम नहीं होगा!
या फिर मेरी तरह कुछ लिख ,
मैं अक्सर बीते वक़्त को पास बुलाती हूँ,
उनसे बातें करती हूँ,
चाहे वह कोई शिकवा गिला हो
या प्यार मनुहार की कहानी -
उदी-उदी घटाओं का मादक सन्देश खुद पास आ जाता है...
और पास होता है ,
उस पार पहुचने का सम्मोहन !
वक़्त ,पल भर में गुज़र जाता है...
कब दिन आया और गुज़रा ,पता ही नहीं चलता....
रात को मैं इसी ख़ुशी को सिरहाने रख कर सो जाती हूँ-
आज गुज़र गया अब कल....
तुम भी ऐसा ही कुछ करो....
मन न लगे तो कुछ गाओ, कुछ लिखो, कुछ बातें करो...

Tuesday, February 19, 2008

फूल तोड़ना मना हैं!



तुम एक पार्क हो,
शब्द नहीं मिलते कि,
तुम्हारे रूप की प्रशंसा करूँ ....
मखमली दूबों से भरे रास्ते,
करीने से कटी झाडियों के बीच रंग-बिरंगे - असंख्य फूल ,
चारों ओर बिखरी इत्र की सुवास ,
तुम्हारा चुम्बकीय आकर्षण...
सिर्फ मुझे ही नहीं, सबको खींचता हैं...
रोज़-रोज़ मेरे पाँव,उधर चल पड़ने को विवश हो जाते हैं जिधर तुम हो
पर .....!
रोक लेती हूँ खुद को
इसलिए कि तुम एक पार्क हो,
पार्क में भीड़ हैं ,ऊँचे-ऊँचे लोगों की॥
और मेरे पास सिर्फ दो साड़ीयाँ हैं ,
बारी-बारी उन्हें पहनती हूँ
अक्सर तुम तक आने लगूँ
तो लोग मुझे घूरने लगेंगे...
-यह कौन हैं?
मैं जानती हूँ वे आश्चर्यचकित होंगे
इसे भी पार्क का शौक हैं!
अफ़सोस! आँखों की भाषा मैं समझ लेती हूँ,
इसीलिए खुद को रोक लेती हूँ॥
अपनी ग्लानी....!
छोडो इसे ,
तुम्हारा महत्व भी तो कमेगा
तुम एक पार्क हो -
रूप,रस,गंध से भरे
रोज़-रोज़ तुम तक पहुचने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाउंगी
और डर भी लगता हैं,
क्यूंकि जगह-जगह लगी तख्तियों पर
बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हैं

-फूल तोड़ना मना हैं!

Monday, February 18, 2008

मुझे डर हैं!



लगता हैं , तुमने हमने गोया सबने


बुद्धि की परतें जमा ली हैं


सूत्र वाक्य बोलने लगे हैं


अखबारी नीति से विचार विनिमय करने लगे हैं


आधुनिक लिबासों में


आकृतियाँ बदलनी सीख ली हैं


दार्शनिक मुद्राओं में ,


सिद्धांत गढ़ने लगे हैं


पर.....


अंतर की कोमल अनुभूतियों का क्या होगा?


क्या भावनाओ की स्निग्ध पंखुडियां


मुरझा कर सूख नहीं जायेंगी?


लगता हैं ,


हम तेजी से भागने लगे हैं


एक-दूसरे के पीछे धक्के मारते,


मुँह चिढ़ाते अबोध बच्चों की तरह,


बाजी जीतने की उतावली में -


अनुसंधान हम करेंगे ,


श्रेय का सेहरा हम पहनेंगे ,


एथेंस के सत्यार्थी की तरह


-नग्न सत्य का उद्घाटन हम करेंगे....


पर , थके पाँव, फटी अंगुलियाँ ,


लहु-लुहान पैर लिए - कहाँ बैठेंगे!


उन्मादित शिराओं का रक्त


क्या हमें विक्षिप्त नहीं कर देगा?


क्या सत्य को उद्घाटित करने की दौड़ में


जिद्दी सत्यार्थी की तरह


हमारी आँखें फूट नहीं जायेंगी?


मुझे डर हैं !


हम असभ्य से सभ्य हो गए, अशिक्षित से शिक्षित


-मूर्खों की पंगत से निकलकर विद्वान हो गए


शक्लें बदल दी ,लिबास बदल डाला


बोल-चाल की कौन कहे हाव-भाव ,


मुद्राएं बदल डाली


अवसर पर बोलना,चुप रहना ,


कहकहे लगाना सीख गए पर भूल गए


-भीगी उदास पलकों की भी


कोई भाषा होती हैं


जिसे पढ़ने के लिए


आत्मा की गहराई में


प्रवेश करना पड़ता हैं


क्या हम ऐसा कर सकेंगे?


अगर नहीं ,


तो क्या उस कलाकार की


सृजन कला का अपमान नहीं होगा?


मुझे डर हैं !


एक दिन हम पंगु हो जायेंगे


ऐसा कोई वर्तमान न होगा


जो जुगनू सा चमक कर


झूठी रौशनी का भ्रम पैदा कर सके


भविष्य की बेबुनियाद योजनायें


दुर्बल शरीर में


उत्ताप भरते-भरते


खुद ठंडी पड़ जायेंगी


और हम आशाओं , आकांक्षाओं के


ज़र्द पड़े फूलों को देखते रहेंगे


फिर भी, दर्द बंटाने को


कोई हाथ नहीं आएगा


प्राणों की उर्जा ,


किसी स्नेह-हीन लौ सी तड़पती हुई ,


अतीत की कथाओं पर दम तोड़ देगी!!!!!!!!!!!!