मेरी दुनिया...

Saturday, November 3, 2007

मन का रथ



मन का रथ जब निकला
आए बुद्धि - विवेक
रोका टोका समझाया
दी सीख अनेक
लेकिन मन ने एक ना मानी
रथ लेकर निकल पड़ा
झटक दिया बातों को जिद पर रहा अड़ा
सोचा मैं मतवाला पंछी नील गगन का
कौन भला रोकेगा झोंका मस्त पवन का
जब चाहे मुट्ठी में भर लूं चाँद सितारे
मौजों से कहना होगा कि मुझे पुकारे
मन की सोच चली निर्भय हो आगे - आगे
अलग हो गए वो अपने जो रास थे थामे
यह थी उनकी लाचारी
कुछ कर न सके वो
चाहा फिर भी
नही वेग को पकड़ सके वो
समय हँसा...
रे मूरख ! अब तू पछतायेगा॥
टूटा पंख लिए एक दिन वापस आएगा...
सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना
समझ जिसे मधुरस मानव प्याला पीता हैं
वो केवल सपनो में ही जीता मरता हैं
अनावरण जब हुआ सत्य का,
मन घबराया
रास हाथ से छूट गई कुछ समझ न आया
यायावर पछताया ,
रोया फूट फूट कर
रथ के पहिये अलग हो गए टूट टूट कर
रही सिसकती पास ही खड़ी बुद्धि सहम कर
और विवेक अकुलाया मन के गले लिपट कर
लिए मलिन मुख नीरवता आ गयी वहाँ पर
लहू-लुहान मन को समझाया अंग लगा कर
धीरे से बोली-
अब मिल-जुल साथ ही रहना
फिर होगा रथ ,
तीनो मिल कर आगे बढ़ना
कोई गलत कदम अक्सर पथ से भटकाता हैं
मनमानी करने का फल फिर सामने आता हैं..

3 comments:

masoomshayer said...

har shabd ko namskar

aur bhaw ko pranam

Anil

रंजू भाटिया said...

सुंदर रचना है यह आपकी

डाॅ रामजी गिरि said...

"सत्य नही जीवन का नभ में चाँद का आना
सच्चाई हैं धीरे धीरे तम का छाना"

भटके हुए मन का रथ की लगाम पकड़ कर सही रास्ता दिखाया है...
साधुवाद.