मेरी दुनिया...

Tuesday, November 6, 2007

अनुरोध {एक माँ की हृदयस्पर्शी भावना जिसका बेटा खेलते खेलते चला गया }

तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास
तुम अभी कुछ और बैठो......
भोर की पहली किरण के
गीत पावन खो गये
चाँद सिहरा सहम कर
सारे सितारे सो गये
स्वप्न के वीरान घर से
उठ रहा निः श्वास
तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास......
साध के बिखरे सुमन
पूजा विखंडित हो गयी
हाथ फैले रह गये
प्रतिमा विसर्जित हो गयी
धूम बन कर उड़ गया
मन का मधुर विश्वास
तुम अभी कुछ और बैठो...
जिस नए अंकुर को पा कर
बैठ कल्पित छाँव में
मैंने बाँधे आस के
नूपुर विहस कर पाँव में
दे वही अश्रु की थाती चल दिया चुपचाप
तुम अभी कुछ और बैठो...
एक लम्बी सी कहानी
भूमिका बन रह गयी
धूप छाँही रंग का
हर ढंग दुनिया कह गयी
मौन धरती रह गयी
गुमसुम रहा आकाश
तुम अभी कुछ और बैठो...
दो घडी भर के लिए
तुमसे यही अनुरोध हैं
कल की बातों का भला
किसको हुआ कब बोध हैं
पुण्य सारा लूट कर
जग ने दिया अभिशाप
तुम अभी कुछ और बैठो
पास मेरे पास........
(नदी पुकारे सागर)

8 comments:

संत शर्मा said...

साध के बिखरे सुमन
पूजा विखंडित हो गयी
हाथ फैले रह गये
प्रतिमा विसर्जित हो गयी
धूम बन कर उड़ गया
मन का मधुर विश्वास
तुम अभी कुछ और बैठो...
जिस नए अंकुर को पा कर
बैठ कल्पित छाँव में
मैंने बाँधे आस के
नूपुर विहस कर पाँव में
दे वही अश्रु की थाती चल दिया चुपचाप
तुम अभी कुछ और बैठो...

ek maa ke akhoo ke samne yadi uski santan hamesa ke liye vida ho hai to us maa ki vyathit bhawanao ka behad marmik chitran kiya hai aapne. Bahut hi umda rachna

Avinash Chandra said...

main nishabd hun........niruttar......kya kahun?
adbhut......mera saubhagya hai ki main ye padh paaya


avinash

Vandana Shrivastava said...

जिस नए अंकुर को पा कर
बैठ कल्पित छाँव में
मैंने बाँधे आस के
नूपुर विहस कर पाँव में
दे वही अश्रु की थाती चल दिया चुपचाप
तुम अभी कुछ और बैठो...
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मौन धरती रह गयी
गुमसुम रहा आकाश
तुम अभी कुछ और बैठो...

अपने को खोने का दुःख कितना साफ झलक रहा है...सच मे धरती सूनी और आकाश विराना ही लगने लगता है.बहुत अच्छी लिखी है अम्मा !!

डाॅ रामजी गिरि said...

बहुत ही संवेदनशील रचना है ,मन को व्यथित करती है.

!!अक्षय-मन!! said...

साध के बिखरे सुमन
पूजा विखंडित हो गयी
हाथ फैले रह गये
प्रतिमा विसर्जित हो गयी

ye soch nahi kuch aur hai

jo kuch aur hi darshati hai.......


kuch aur hi batati hai............


ye soch nahi kuch aur hai


jo jo mukt aatma ko nirjiv sharir se milati hai.....


ye soch nahi kuch aur hai


jo shbdon ke moti ko mala banati hai


ye soch nahi kuch aur hai

ye soch nahi kuch aur hai.........

vinodbissa said...

अनुरोध......... दिल की आवाज मानो हुबहू शब्दों का रूप धर कागजों पर अंकित हो गयी है........ बहुत ही सधे अंदाज में, बिना भटकाव आपने उक्त काव्य रचना को मूर्त रूप दिया है ....... उसके लिए आप बधाई की पात्र हैं रश्मि जी......

masoomshayer said...

kuch kahe bina sar jhuka ek ja raha hoon
kahana hee nahe ekcuh mujeh jab shabd nahee hain to kaise kahoon
zid na karo nahee to ruke ansoo bah jayenge
mujeh bas moun jane to aaj koye shabd nahe mango amma jee

Anil

Unknown said...

har baar ki tarah ek acchi kavita , phir se padhne ko mili maan prafhulit ho gya.tarifh k liye shabd kam pad rahen hai .yahi kahunga ki sarvsrestha kavita hai ye......