मेरी दुनिया...

Monday, November 5, 2007

नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...


न पूछो ये हमसे , कहाँ क्या हुआ है ...
बताना है मुश्किल , कहाँ क्या हुआ है ...
कुछ तो हुआ है , कहीं तो हुआ है ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
न बादल ही गरजे , न बरसा है पानी ...
न तुमने कही मुझसे कोई कहानी ...
मगर साँसों की लय थाम सी गयी हा ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
यहाँ दोस्ती संगदिली में बदलती ...
सरल कामनाएं भी पग पग पर छलती ...
यहाँ पाने का नाम कोरा भरम है ..
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
न मंजिल है कोई न कोई डगर है ...
मैं जाऊं कहाँ ये बेगाना शहर है ...
उम्मीदें हैं औंधी पड़ी सोयी सोयी ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
ये दुनिया लगी मुझको इक जादू - नगरी ...
छलकती रही मेरे नैनो की डगरी ...
भरी भीड़ में भी रहा में अकेला ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...
हुआ कितना तनहा विकल मन का कोना ...
गया दूर चुपके से सपना सलोना ...
बड़ी संगदिल हैं कफस की सलाखें ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ...

2 comments:

masoomshayer said...

bahut achha chitr hai achha likhne kee drishti se waise kaun chahta hai dhuyen se bhara shahar ya zindgee bahut achha laga padh kar ek tees bhee milee

Anil

डाॅ रामजी गिरि said...

"कुछ तो हुआ है , कहीं तो हुआ है ...
नहीं तो ये फिर क्यों धुआं ही धुआं है ..."

बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं ..