मेरी दुनिया...

Thursday, April 3, 2008

बांसुरी.....


मन को एक बांसुरी कि तलाश थी,
गीतों कि रिमझिम में-
जीवन भर भींगते रहने के लिए,
वह मिली और टूट गई!
वे सारे गीत,
जिन्हें गाकर गीतों कि रिमझिम में भींगना था ,
अन्गाए बिखर गए!
एक छोटी-सी बांसुरी को,
पता नहीं कैसे-
मैंने जीवन भर का संबल मान लिया था!

6 comments:

अमिताभ मीत said...

आह ! सच. एकदम सच. ऐसा क्यों होता है ??

Varun said...

ye bahut sundar likha hai saraswati ji..

masoomshayer said...

aap kee har kalpna sharrdha yogy hai kuch naya likhne ka man detee hai

Anil

संत शर्मा said...

कभी कभी येसा होता है की जिसे हम अपने जीवन का आधार मान कर जीते रहते है, वो असमय ही साथ छोड़ जाते है, और एक अरसे बाद जब हम उस अधार के बगैर जीना सिख लेते है तो हमें महसूस होता है की रास्ते और भी है मंजिल तक पहुचने के, हम तो बेबजह ही विश्वास खोये जा रहे थे |Ek behtar kavita.

डाॅ रामजी गिरि said...

बहुत ही सहज शब्दों में दिल के टूटे तारों को छेड़ा है आपने..
पर मन के बांसुरी की लय तो कभी नहीं टूटती ,फिर ऐसी बांसुरी- मरीचिका के पीछे मोह क्यों?

Anonymous said...

bahut gehra marm chod gayi kavita,bahut gehre bhav hai,kabhi kabhi shayad ham sab ke saath aisa hota hai,bahut sundar kavita.