मेरी दुनिया...

Monday, August 4, 2008

डर कैसा ?


जी चाहता है -

रेशमी सपनों के पंख पैरों में बाँध लूँ

और उड़ जाऊँ

निस्सीम आकाश का विस्तार मापने

पर अगले ही क्षण डर लगता है !

आँधियों का क्या भरोसा ?

समय का एक हल्का इंगित होते ही

नभ का कोना - कोना

धूल - गर्द गुबार से ढँक जाएगा

मेरे सारे मनसूबे दिशाहीन हो जायेंगे !

पर तेरे चरण चिन्ह , मेरे हौसले को बल देते हैं

पूरे ब्रह्माण्ड में तू विद्यमान है

साथ-साथ चलता है , प्यार करता है

तो फिर , डर कैसा ?

11 comments:

Anonymous said...

What a great moment of reading blogs.

!!अक्षय-मन!! said...

कितनी अच्छी रचना है डर कैसा बिल्कुल सही कहा है सपने कभी हमसे अलग हो ही नहीं सकते चाहें कितनी भी रुकावटें आये, एक वही तो हैं जो हमें कुछ करने के लिए प्रेरित करते हैं हमारा मार्गदर्शन करते हैं फिर डर कैसा.......
एक छोटी सी कविता मेरी प्यारी अम्मा के लिए....
रात फिर वो सिलवटें जाग गई जरा सी करवट लेते ही
और वहीं -कहीं पड़े कुछ सपने कुलबुला उठे
उन सिलवटो से हुई बैचैनी से ...

वो कराहना मेरा उस बेचनी को देख
आँचल में लपेट लिए सपने सारे
पता है उस आँचल में सपनो
के साथ कोई और कोई और भी रहता है
एक हकीक़त रहती है एक विश्वास रहता है ...

न जाने क्यूँ उम्र के साथ-साथ वो सपने भी ढल जाते हैं
अधूरे उन सपनो की कोई मज़बूरी रहती है
या जाने कुछ मलाल रहता है ...

कौन कहता है सपने देखना बेहद आसान है
मैं बता दूं सपने देखने में भी कुछ अर्चने आया करती हैं
वो हलचल वो बैचैनी कुछ करवटें कुछ सिलवटें
वो लाया करती हैं ...

रात की गुप्त खामोशी में वो सपने
मुझसे आकर बोला करते हैं
जुबान नही उनकी तो क्या
वो मन के भेद खोला करते हैं ...

अभी ये थोड़े हकीक़त से अनजान हैं
थोड़े हैरान थोड़े परेशान हैं
इसने भी एक सपना देखा है
हकीक़त में ढलने का इसे भी अरमान है ...

अभी तो वो परियो की दुनिया में रहते है
लेकिन खुशयां मेरे आँचल में भरते हैं
जब हम स्मरण कर उन्हें पास बुलाते हैं
तो वे थोड़ा शरमाते हैं थोड़ा इठलाते हैं
बड़ी मिन्नतों के बाद करीब आते हैं .....
और चुपके से आकर बोलते हैं
अब करवट मत लेना न तो सिलवटें
जाग जाएँगी मुझे उन से बहुत डर लगता है
कहीं तुम्हारी नींद न टूट जाए
कहीं तुम्हारा सपना न टूट जाए
कहीं मैं अधूरी न रहे जाउं
बस तुम करवट मत लेना न तो सिलवटे
जाग जाएँगी मुझे उनसे बहुत डर लगता है
बस तुम करवट मत लेना

संत शर्मा said...

Sahi hai Iiswar sarwavyapt hai aur unke prati aastha aur vishwas ka sambal ho to phir daar kaisa.

GOPAL K.. MAI SHAYAR TO NAHI... said...

वाह क्या बात है..!! बहुत खूब अम्मा जी..,
मुझे कविता पढ़कर ऐसा लगा
कि आपने ये कहा है-

"ईश्वर के भरोसे
किसी भी मंजिल पर
बिना डर के चला जा सकता है
उसके बताये पदचिन्हों का अनुशरण कर के.."

एक शायरी याद आ गयी इसे पढ़ कर-

मुश्किलें राहों के इरादे आजमाएंगी,
ख्वाबों के परदे निगाहों से हटाएँगी..
गिरकर कभी हौसला मत हारना,
ये ठोकरें ही तुम्हे चलना सिखाएंगी..!!

रंजू भाटिया said...

पूरे ब्रह्माण्ड में तू विद्यमान है

साथ-साथ चलता है , प्यार करता है

तो फिर , डर कैसा ?

बहुत सुंदर लगी आपकी यह कविता ..जब वह साथ है तो सही में डर कैसा .

ख्वाब है अफसाने हक़ीक़त के said...

Bahut hi achha likh hai aapne... to fir dar kaisa? bahut khoob.

Deepak Gogia

डाॅ रामजी गिरि said...

आपकी रचना पढ़ कर 'मुक्तिबोध' की ये पंक्तियाँ याद हो आयी...

"दिन में भी आसमाँ में तारें होते हैं ,उनके प्रकाश की किरणे हमें दिखती नहीं.लेकिन पृथ्वी पर गिरती ज़रूर हैं,भले ही दिन का उजाला हो."

Anonymous said...

Apka blog padha. Bahut badhiya likhte hain aap. Main to abhi tak koshish mein hee laga hoon.
Aapka mere sthal par padharane tatha ek sunder si baat likhne ke liye dhanyawad. Khush rahein...

admin said...

सही कहा आपने, जब तू साथ है तो फिर डर कैसा?

~anu~ said...

amma yeh waali kavita bahut achchhi lagi :)

स्वयम्बरा said...

bahut achchi rachna hai.oos asim ko hamara bhi pranam jo har pal har jagah hamare sath hota hai.tabhi to hamara dar hampar haavi nahi hota.badhai.