Sunday, March 30, 2008
प्यार..............?
Friday, March 28, 2008
दर्द का रिश्ता...
उन्होंने इस कविता को माँगा था, अपनी पत्रिका "नैन्सी " के लिए (हिन्दी दिवस विशेषांक) )
राष्ट्र कवि दिनकर ने लिखा हैं-
"प्रभु की जिसपर कृपा होती हैं
दर्द उसके दरवाज़े
दस्तक देता हैं....."
पंक्तियों के मर्म की जब परतें खुली,
अंतस के निविड़ अन्धकार मे,
किरणें कौंधी!
मैं अवाक्! निश्चेष्ट !
अप्रतिम छवि को
पलकों मे भरती रही....
भीतर से विगलीत आवाज़ आई -
"दाता तेरी करुणा का जवाब नही"
सहसा महसूस हुआ ,
दर्द का रिश्ता
हमारे अन्दर जीता हैं
दर्द की मार्मिक लय
आस-पास गूंजती हैं
दर्द का कड़वा धुआं ,
साँसों मे घुटन भरता हैं
ओह!
अनदेखा, गुमनाम होकर भी
अन्तर की गहराइयों मे बेबस बैठा
कोई फूट-फूट कर रोता हैं!
रिश्तों की डोर
मेरी आत्मा से बंधी हैं ,
अपना हो या और किसी का -
चाहे - अनचाहे मैं भंवर मे फँस जाती हूँ !
छाती की धुकधुकी बढ़ जाती हैं,
घबरा कर ,
अनदेखे , अनजाने को
बाँहों मे भर कर ,
सिसकियों मे डूब जाती हूँ !
लोग कहते हैं-
मुझे सोचने की बीमारी हैं,
मैं लोगों की बातों का उत्तर
नहीं दे पाती!
अचानक, ये मुझे क्या हो गया हैं,
शायद....
दर्द के इसी रिश्ते को लोग
"विश्व-बंधुत्व " की भावना कहते हैं,
तो देर किस बात की बंधु ?
दो कदम तुम चलो ,
दो कदम हम....
और इसी रिश्ते के नाम पर
पथ बंधु बन जाएँ !
जीवन की डगर को
सहयात्री बन काट लेंगे...
दर्द को हम बाँट लेंगे.....!
Tuesday, March 25, 2008
मैं चाहूंगी, तुमसे कभी मिलूं!
अगर तुमने कभी , नदी को गाते नही
प्रलाप करते हुए देखा हैं
और वहाँ कुछ देर ठहर कर
उस पर गौर किया हैं
तो मैं चाहूंगी तुमसे कभी मिलूं!
अगर तुमने पहाडों के
टूट - टूट कर बिखरने का दृश्य देखा हैं
और उनके आंखों की नमी महसूस की हैं
तो मैं चाहूंगी तुम्हारे पास थोडी देर बैठूं !
अगर तुमने कभी पतझड़ की आवाज़ सुनी हैं
रूदन के दर्द को पहचाना हैं
तो मैं तुम्हे अपना हमदर्द मानते हुए
तुमसे कुछ कहना चाहूंगी!
लेकिन मुझे यही नही पता , तुम हो कहाँ?
मैं तुमसे कहाँ मिलूं ?
अजनबी चेहरों की भीड़ से निकलकर
कभी सामने आओ...
तो मैं तुम्हारा स्वागत करूंगी!
ज़िंदगी प्रतिपल सरकती जा रही हैं
और मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा हैं
अँधेरा घिरते ही,
उम्मीद का दिया जला लेती हूँ
जाने कब, कहाँ पलकें बंद हो जाएं...
इससे पहले मैं चाहूंगी
तुमसे अवश्य मिलूं...
तुम्हे जी भर कर देख लूँ....
Sunday, March 23, 2008
हे प्रभु!
संबंधों का जाल
एक दिन
व्यर्थ सिद्ध होते हैं!
फिर, किसकी खोज में भटकता हैं मन?
ये चकित,चमत्कृत आँखें
विस्मय लिए डोलती हैं!
समझ नही पाता मन
क्या ढूँढती हैं!
कौन-सी चीज़ विद्युत सी चमक कर
व्याकुलता की ओर बढ़ाती है!
ख़ुद गाए गीतों से
या तुमसे कोई गीत सुनकर
क्यों मेरा 'मैं'
कतरे-कतरे में पिघलता हैं?
अन्तर में छिपा यह स्रोत कैसा हैं
जो कल-कल निनाद करता हैं?
हे प्रभु!
मेरे पल्ले आज तक
कुछ नहीं पड़ा !
Wednesday, March 19, 2008
तुम्हारे बदलने का प्रमाण!
कि मैं अपने को
बिना ज़मीन,बेघरबार,
नितांत अकेला महसूस करती हूँ!
तुम्हे नहीं पता,
मेर चारों ओर फैला अनंत आकाश,चाँद सितारे,धूप-छान्ही रंगों की आँख-मिचौली
सब अर्थ-हीन हो गए!
धरती पर खिले फूलों की गंध,
परायी लगने लगी
क्या यही प्रमाण पर्याप्त नहीं
कि मेरा अकेलापन
पारे की तरह अनियंत्रित हो गया!
नियति का यह दर्द नहीं
कि मेरे और तुम्हारे बीच
अलगाव हो गया!
किस सेतु की कल्पना करूँ?
जहाँ तुम्हारा मन मंत्रविद्ध हुआ
वहाँ अपनी पहचान बना कर
नहीं रह पाओगे!
मुझमे संवेदनाओं के सारे श्रोत सूख रहे हैं
मेरा अतीत
पत्थर हुए फूलों का संग्रहालय!
इस अंतहीन आकाश में उड़ते हुए
मेरे पंख थक चुके हैं!
कितना अजीब लगता है ये सोच कर-
मैं चक्रवात में घिरी हूँ
तुम्हारे आँखों में अनजाने संदर्भों के
गुलाब खिल रहे हैं!
तुमको कैसे घेर पायेगा
मेरी डूबी आँखों का दर्द?
तुम्हारे बदल जाने का प्रमाण
क्या यह पर्याप्त नहीं
कि मेरे पास यथार्थ और नाटक का
अंतर मिट गया!
शेष बच रहा है दृश्य...
केवल दृश्य!!
Sunday, March 16, 2008
प्रशस्ति के बादल!
बड़े मोहक लगते हैं-जब छा जाते हैं
मन-मयूर कल्पना के रंगीन पंखों को खोल
बेसुध-सा नृत्य कर उठता है
और हवा के रथ पर बैठ
धरा से अम्बर तक की
परिक्रमा करता है...
फिर-पलकों को मूँद
भावों को संजो
अंतर की प्रत्येक सूक्ष्म कलियों को
खिलते हुए,झूमते हुए
विहंसते हुए देखता है!
पर,प्रशस्ति के घनीभूत बादल
अमा की रात भी बन जाते हैं
गर्जन,तर्जन,उमड़न,घुमड़न-
बिजली की कटार लिए
जिस दिन बरसते हैं,दहशत फैला देते हैं!
धरा और अम्बर को मापने वाला मन
पथभ्रांत हो जाता हैं
भावों की लड़ी टूट जाती हैं
झूमती,विहंसती कलियाँ
बिखर कर धुल में मिल जाती हैं
शेष रह जाता हैं-
गंदला पानी
कीचड़ और कीचड़!!
Saturday, March 15, 2008
भुला देना...
तो तुम मना लेना...
मेरी गुस्ताखियों को दिल से
तुम भुला देना..
मैं कभी तुमसे अलग रह तो नहीं सकती
किसी कारण से बिछड़ जाऊं
तो तुम सदा देना..
जाने कितना तुमसे कहना है
सुनना है अभी
बातों के बीच मे सो जाऊं
तो तुम जगा देना..
थक गयी हूँ मैं बहुत दूर से आते आते
अब तेरी बाहों मे गिर जाऊं
तो तुम उठा लेना...
मेरा बचपन ही मेरे साथ रहा है अब तक
तुम भी आपने भोले बचपन को
न जुदा करना
गर कभी तुमसे रूठ जाऊं
तो तुम मना लेना...
मेरी गुस्ताखियों को दिल से तुम भूला देना.
Tuesday, March 11, 2008
दो पंछी
पिंजरे मैं बैठा कुछ गाता था
गाते-गाते लौह तीलियों पर
सर को टकराता था!
नीले नभ मैं उड़ता-फिरता
पंछी एक वहाँ आया
क्या संयोग था दोनों को,
इक-दूजे से मिलना भाया
मीठी वाणी में बनपाखी ने मनोहार किया उससे
चलो मीत तुम संग हमारे
साथ रहेंगे मिल-जुल के
पिंजरे का पंछी बोला-
मैं पाउँगा फिर ठौर कहाँ
कहाँ मिलेगा दाना-पानी
भटकूँगा मैं यहाँ-वहाँ
बंधू!तुम ही आ जाओ,
हर सुख-दुःख बाँट जियेंगे हम
हिम्मत अपनी दुगुनी होगी
मौत भी आये तो क्या गम
मीठे सुर में गाकर अपना गीत सुनाऊंगा तुमको
अपने मन का हाल सुनकर मीत बनाऊंगा तुमको...
बनपाखी उकता कर बोला - नहीं सीखना ऐसे गीत
गाकर जिसको मन बोझिल हो,
प्राणों में भर जाये टीस
आँसू पी कर होठों पर बरबस लाना फीकी मुस्कान
नहीं चाहिए ऐसा जीवन,नहीं चाहिए ऐसा गान...
तुम गाते रहते हो केवल,
औरों के रटवाये गीत
मैं अपनी धुन का मतवाला
गाता हूँ मस्ती के गीत!
तोड़ तीलियाँ बाहर आओ
ठौर नहीं ये कारागार
पंख पसारे,हँसते-गाते
मिलकर चलें क्षितिज के पार...
रुंधे कंठ से पिंजरे का पंछी बोला-
अब क्या होगा?
लिखा भाग्य में जो विधि ने
वह मन मारे सहना होगा.
मैं कैदी हूँ,आजादी का सपना भी अब क्या पालूँ
शक्तिहीन हैं पंख हमारे
संग तुम्हारे कहाँ चलूँ!
इस अम्बर के आँगन को,
मैं पार कहाँ कर पाउँगा
खो जाऊंगा अटक-भटक कर
डर से ही मर जाऊंगा
चाहो अगर तो तुम्ही मेरे पास रहो
मितवा मेरे!
शायद साथ तुमारे रह कुछ सीख सकूं धीरे-धीरे...
बनपाखी के चोंच हिले,मन भर आया थी मजबूरी
पिंजरे का पंछी बोला-हम मिटा न पाएंगे दूरी!
दूरी थी प्रारब्ध,बिचारे इसका लेख मिटा न सके
पंख रहे लाचार फडकते
पास-पास भी आ न सके
लौह-तीलियों को छूकर बनपाखी उडा गगन की ओर
पिंजरे का पंछी अकुलाया भींग गए नैनो के कोर!
Saturday, March 8, 2008
एक नयी अनुभूति
एक दिन हलके कदम
वह मेरे एकांत में आया
पास बैठा ,
मुझ पर दृष्टि डाली॥
ऐसी दृष्टि - जिसे देख कर लगा-
अंतर की खुली देहरी पर खड़ी हो कर
आत्मा मुझे अपलक निहार रही हैं!
मेरे रोम-रोम को सींचती एक स्निग्ध शीतलता
मेरे प्राणों में उतर गयी
जाने कैसे!
उसे मेरे सूने क्षणों से लगाव
मेरी अरूचि से रुचि
उदासीनता से आसक्तिपीड़ा से प्यार हो गया ,
संवेदना की कोमल उँगलियों से छूकर वह बोला...
आओ इधर हम बातें करें
-जीवन और जगत की
धरती- आकाश की आकर्षण-विकर्षण की
सृजन की, विनाश की सृष्टि के अनंत सौन्दर्य की...
ऐ,सुन रही हो?
ध्यानावस्थित मैंने हुंकारी भरी
भीतर की शून्यता मुखर हो उठी!
लोग कहते हैं -मैं कुछ सनकी हूँ
जीवन-जगत की ठोस कर्मभूमि पर पाँव रख कर
सच्चाई से कतराती हूँ...
उसने स्नेह भरे स्वर में टोका-
सर झुका कर क्या सोचती हो?
सुन रही हो न मेरी बातें?
'हाँ' या 'ना' मुझसे कुछ भी कहते नहीं बना
क्यूँकि सुनने के बजाय मैंने केवल कहा था !
वह उठ कर चला गया
नाराज़ हो कर नहीं,
फिर आने की बात कह कर
जानती हूँ, यह भ्रम नहीं सत्य हैं
बंधू,वह कहीं नहीं मिलेगा!
फिर भी क्रम जारी हैं...
मन न लगे, तो....
दिनों से छूटे फूटे काम को
मन लगा कर निपटा, ताज़गी मिलेगी...
किसी प्रिय साथी से हाथ मिला, आनंद मिलेगा...
यह भी नहीं -
तो कोई चित्र बना,
उसमे रंग भरने का काम कर...
समय कब कैसे निकल गया, मालूम नहीं होगा!
या फिर मेरी तरह कुछ लिख ,
मैं अक्सर बीते वक़्त को पास बुलाती हूँ,
उनसे बातें करती हूँ,
चाहे वह कोई शिकवा गिला हो
या प्यार मनुहार की कहानी -
उदी-उदी घटाओं का मादक सन्देश खुद पास आ जाता है...
और पास होता है ,
उस पार पहुचने का सम्मोहन !
वक़्त ,पल भर में गुज़र जाता है...
कब दिन आया और गुज़रा ,पता ही नहीं चलता....
रात को मैं इसी ख़ुशी को सिरहाने रख कर सो जाती हूँ-
आज गुज़र गया अब कल....
तुम भी ऐसा ही कुछ करो....
मन न लगे तो कुछ गाओ, कुछ लिखो, कुछ बातें करो...