Saturday, September 13, 2008
मुश्किल है...
जागते हुए सोना,
सोते हुए जागना
सपनों के मायावी गाँव में
किसी अपने को ढूंढ़ना !
यायावर मन को भ्रम की
ऊँगली थमाना ..........
बहुत मुश्किल है !
दर्द की एक-एक बूंदों को
बड़ी सावधानी और नरमी से इकठ्ठा करके
अक्षरों के धागे में तन्मयता से पिरोना
मेरे बन्धु !
बड़ी मुश्किल है !
कितना त्रासदाई है
करवटें बदलती ज़िन्दगी का सामना करना
उसकी आंखों की भाषा पढ़ते हुए
जी चाहे न चाहे,
आगे बढ़कर हाथ मिलाना
चेहरे को सहज बनाकर,
होठों पर मुस्कराहट लाना
ओफ़्फ़ !
बड़ी मुश्किल है !
बड़ी मुश्किल है मेरे पथबंधु !
गुजरते वक्त की पदचाप सुनना ,
और संजीदगी से सोचने पर मजबूर होना -
अब ये पल कभी वापस नहीं आनेवाला
भावनाओं के बहाव पर रोक लगाना
दाता से अतिरिक्त शक्ति की याचना करना
आंखों के पानी को
ऊँगली के पोर से झटक देना
चलती हुई बातों की कड़ी को थामकर
अचानक बोल उठना -
हाँ, तो क्या हुआ ?
आत्मा की सूरत पहचानते हो
तो समझ जाओगे मेरे सहचर ,
बड़ी मुश्किल है !
Wednesday, September 10, 2008
निरी मूर्खता !!
बदलते क्रम की धुरी में
गाँव शहराना होता गया
नगर महानगर की शक्ल लेने को
उतावले हो गए !
सोच बदल गई,विचार बदल गए
लोग-बाग ऐसे बदले-
कि पुरानी पहचान विस्मृति के धुंध में खो गई !
आधुनिकता की अंधी दौड़ में डूबा व्यक्ति-
कभी अपने अन्दर झाँकने की चेष्टा नहीं करता
यह सोच भी अन्दर से सर नहीं उठाती
कि, वह कितना बदल गया !
आत्मा के कल्पवृक्ष अदृश्य होते जा रहे हैं
अब तो वैसी आंधी भी नहीं आती,
जो भ्रम की चादर उड़ा दे....
इस गहमा-गहमी के यांत्रिक युग में
रिश्तों कि बातें सोचना या करना
प्रागैतिहासिक काल पर बातें करना जैसा हो गया
या फिर निरी मूर्खता !!!!!!!!!!
Monday, September 8, 2008
प्रश्नों के आईने में....
मेरे मन के करीब मेरी सबसे अच्छी दोस्त मेरी माँ थी । खेल-खिलौने , साथी तो थे ही ,पर मैं 'उसे' नहीं भूल सकी, जिसने सबसे पहले मेरे मन को रौशन किया - वह था , मेरे कमरे का गोलाकार रोशनदान । सूरज की पहली किरणें उसी से होकर मेरे कमरे के फर्श पर फैलती थीं । किरणों की धार में अपना हाथ डालकर तैरते कणों को
मुठ्ठी में भरना मेरा प्रिय खेल था । यह खेल मेरे अबोध मन के अन्दर एक अलौकिक जादू जगाता था ।
मेरी आँखें बहुत सवेरे पड़ोस में रहनेवाली नानी की 'पराती' से खिलती थी। नानी का क्रमवार भजन मेरे अन्दर अनोखे सुख का संचार करता था । मुंह अंधेरे गलियों में फेरा लगनेवाले फ़कीर की सुमधुर आवाज़ इकतारे पर - ' कंकड़ चुन-चुन महल बनाया
लोग कहे घर मेरा है जी प्यारी दुनिया
ना घर मेरा ना घर तेरा , चिडिया रैन बसेरा जी
प्यारी दुनिया ......' । मेरे बाल-मन में किसी अज्ञात चिंतन का बीजारोपण करती गई। फ़कीर की जादुई आवाज़ के पीछे - पीछे मेरा मन दूर तक निकल जाता था। मेरे कुछ प्रश्नों पर मेरे माँ , बाबूजी गंभीर हो जाते थे। मेरा बचपन शायद वह छोटी चिडिया बन जाता था,जो अपनी क्षमता से अनभिज्ञ नभ के अछोर विस्तार को माप लेना चाहती थी। मुझे लगता था सूरज का रथ मेरी छत पर सबसे पहले उतरता है। चाँद अपनी चांदनी की बारिश मेरे आँगन में करता है। तभी मैं अपने साथियों के साथ 'अंधेरिया-अंजोरिया'का खेल खेलते हुए मुठ्ठी में चांदनी भर-भर कर फ्रॉक की जेब में डालती थी और खेल ख़त्म होने पर उस चांदनी को निकालकर माँ के गद्दे के नीचे छुपा देती थी....
मैंने पढ़ना शुरू किया तो बहुत जल्दी ही पुस्तकों ने मुझे अपने प्रबल आकर्षण में मुझे बाँधा। इस प्रकार कि देखते-ही-देखते मेरी छोटी सी आलमारी स्कूली किताबों के अलावा और किताबों से भर गई। 'बालक,चंदामामा,सरस्वती,' आदि पत्रिकाओं के अलावा मैं माँ के पूजा घर से 'सुख-सागर,प्रेम-सागर,रामायण का छोटा संस्करण ' लेकर एकांत में बैठकर पढ़ती थी। राजेंद्र बाबू की आत्मकथा (मोटी पुस्तक)मैंने बचपन में ही पढ़ी थी। आलमारी खोलकर पुस्तकें देखना , उन्हें करीने से लगाना ,उन पर हाथ फेरना मुझे अत्यन्त सुख पहुंचाता था । शायद यही वजह रही होगी या मेरे घर का एकाकीपन कि मेरे मन को कोई तलाश थी। कल्पना के ताने-बाने में कोई उद्वेग भरता था,छोटे से मन कि छोटी सी दुनिया में कोई अनजानी उदासी चक्कर काटती थी। मन के कोने में रंगीन तितली पालनेवाली तरु को किसकी खोज थी?-शायद रिश्तों की। और इसी खोज ने मेरी कल्पना को पंख दिए ,जो मैं देखती थी उससे परे जाकर भी सोचती थी।
मैं जिस मुहल्ले में रहती थी वहां हर जाति और तबके के लोग थे। बड़े-छोटे का भेदभाव क्या था,कितना था - इससे परे चाचा,भैया,काका का ही संबोधन मैं जानती थी। कई मौके मेरी आंखों के आगे आए - रामबरन,रामजतन काका को गिडगिडाते देखा -' मालिक,सूद के ५०० तो माफ़ कर देन,जनम-जनम जूतों की ताबेदारी करूँगा'......बिच में टपक कर तरु बोल उठती - 'छोड़ दीजिये बाबूजी, काका की बात मत टालें' और तरु का आग्रह खाली नहीं जाता।
कुछ कर गुजरने की खुशी को महसूस करती तरु को लगता कोई कह रहा है, ' तरु - तू घंटी की मीठी धुन है,धूप की सुगंध,पूजा का फूल ,मन्दिर की मूरत.....मेरे घर आना तेरी राह देखूंगा....' कौन कहता था यह सब?रामबरन काका ,रामजतन काका , बिलास भैया , या रामनगीना .........
अपनी ही आवाज़ से विस्मय - विमुग्ध हो जाती थी तरु। खाली-खाली कमरों में माँ माँ पुकारना और ख़ुद से सवाल करना,साथ-साथ कौन बोलता है? जिज्ञासु मन ने जान लिया यह प्रतिध्वनि है। छोटी तरु के मुंह से प्रतिध्वनि शब्द सुनकर उसके मास्टर जी अवाक रह गए थे और माथे पर हाथ रखा था ' तू नाम करेगी ' । पर किसने देखा या जाना था सिवा तरु के कि खाली-खाली कमरों से उठता सोच का सैलाब उसे न जाने कहाँ-कहाँ बहा ले जाता है। फिर वह यानी मैं - अपने एकांत में रमना और बातें करना सीख गई,शायद इसीका असर था कि उम्र के २५ वे मोड़ पर आकर मेरी कलम ने लिखा -
"शून्य में भी कौन मुझसे बोलता है,
मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ
किसकी आँखें मुझको प्रतिपल झांकती हैं
जैसे कि चिरकाल से पहचानती हैं
कौन झंकृत करके मन के तार मुझसे बोलता है
मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ.........."
धरती से जुड़े गीत-संगीत कि दुनिया मेरे चारों ओर थी,इसलिए मुझे गीत-संगीत से गहरा लगाव था,उसके प्रति प्रबल आकर्षण था।
चिडियों का कलरव , घर बुहारती माँ के झाडू कि खुर-खुर, रामबरन काका के घर से आती गायों के गले कीघंटियों की टूनन -टूनन , काकी के ढेंकी चलाने की आवाज़ ,नानी की पराती,गायों का रम्भाना,चारा काटने की खटर -खुट-खट ,बंसवाड़े से आती हवा की सायं-सानी (सीटियों जैसी)....... संगीत ही संगीत था मेरे चारों ओर। वकील चाचा के घर से ग्रामोफोन पर के.सी.डे और सहगल की आवाज़ बराबर आती। सहगल का यह गीत आज भी याद आता है तो अपनी सोच पर हँसी आ जाती है , 'करेजवा में हाय राम लग गई चोट ' , सुनकर मुझे दुःख होता था किकिसने इसे इस प्रकार ज़ोर से मारा कि बराबर गाता है लग गई चोट ! यह बात तो बचपन की थी,पर बरसों बाद जाना कि चोट जो दिल पर लगती है,वह जाती नहीं। दिनकर जी के शब्दों में "आत्मा में लगा घाव जल्दी नहीं सूखता"।
इन्ही भावनाओं में लिपटी मैं घर गृहस्थी के साथ १९६१ में कॉलेज की छात्रा बनी । हिन्दी प्रतिष्ठा की छात्रा होने के बाद कविवर पन्त की रचनाएं मेरा प्रिय विषय बनीं । ६२ में साथियों ने ग्रीष्मावकाश के पहले सबको टाइटिल दिया ।कॉमन रूम में पहुँची तो सबों ने समवेत स्वर में कहा ' लो, पन्त की बेटी आ गई'...... अब ना मेरी माँ थी और ना बाबूजी । साथियों ने मुझे पन्त की बेटी बनाकर मेरी भावनाओं को पिता के समीप पहुँचा दिया। उस दिन कॉलेज से घर जाते हुए उड़ते पत्तों को देखकर होठों पर ये पंक्तियाँ आई ," कभी उड़ते पत्तों के संग,मुझे मिलते मेरे सुकुमार"......
"उठा तब लहरों से कर मौन
निमंत्रण देता मुझको कौन"..........
अगले ही दिन मैंने पन्त जी को पत्र लिखा , पत्रोत्तर इतनी जल्दी मिलेगा-इसकी उम्मीद नहीं थी। कल्पना ऐसे साकार होगी,ये तो सोचा भी नहीं था.....'बेटी' संबोधन के साथ उनका स्नेह भरा शब्द मुझे जैसे सपनों की दुनिया में ले गया। अब मैं कुछ लिखती तो उनको भेजती थी,वे मेरी प्रेरणा बन गए । वे कभी अल्मोडा भी जाते तो वहां से मुझे लिखते.......हमारा पत्र-व्यवहार चलता रहा। पिता के प्यार पर उस दिन मुझे गर्व हुआ , जिस दिन प्रेस से आने पर 'लोकायतन' की पहली प्रति मेरे पास भेजी,जिस पर लिखा था 'बेटी सरस्वती को प्यार के साथ'
........
M.A में नामांकन के बाद ही मेरे साथ बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई,अचानक ही हम भंवर में डूब गए - इसके बाद ही हम इलाहबाद गए थे। पिता पन्त जब सामने आए तो मुझे यही लगा , जैसे हम किसी स्वर्ग से उतरे देवदूत को देख रहे हैं। उनका हमें आश्वासित करना,एक-एक मृदु व्यवहार घर आए कुछ साहित्यकारों से मुझे परिचित करवाना,मेरी बेटी को रश्मि नाम देना, और बच्चों के नाम सुंदर पंक्तियाँ लिखना और मेरे नाम एक पूरी कविता....
जिसके नीचे लिखा है 'बेटी सरस्वती के प्रयाग आगमन पर' यह सबकुछ मेरे लिए अमूल्य धरोहर है। उन्होंने मुझे काव्य-संग्रह निकालने की सलाह भी दी,भूमिका वे स्वयं लिखते,पर यह नहीं हो पाया।
अंत में अपने बच्चों के दिए उत्साह और लगन के फलस्वरूप , उनके ही सहयोग से मेरा पहला काव्य-संग्रह "नदी पुकारे सागर" प्रकाशित हुआ। उस संग्रह का नामकरण मेरे परम आदरनिये गुरु भूतपूर्व अध्यक्ष एवं प्रोफेसर डॉ पूर्णेंदु ने किया....भूमिका की जगह उन्होंने लिखा " इन रचनाओं के बीच से गुजरते हुए...." मैं हमेशा आभारी रहूंगी-
" कौन से क्षण थे वे
जो अपनी अस्मिता लिए
समस्त आपाधापी को परे हटा
अनायास ही अंकित होते गए
मैं तो केवल माध्यम बनी............!
Friday, September 5, 2008
तुम्हारे लिए....
समझो सपनों की भाषा
निश्चित तुमको मिलेगी मंजिल
पूरी होगी आशा !
सपने साथ में हैं गर तेरे
तू मजबूर नहीं है
तूफानों से मत घबराना
मंजिल दूर नहीं है !
बड़े पते की बात है प्यारे
घबराकर मत रोना
आग में तपकर ही जो निखरे
है वही सच्चा सोना !
बुरा नहीं होता है प्यारे
आंखों का सपनाना
सपने सच भी होते हैं
यह मैंने भी है जाना !
सपने ही थे साथ सफर में
और तेरा हमसाया
कतरे की अब बात भुला दे
दरिया सामने आया !
नहीं असंभव बात ये कोई
फिर हो नई कहानी
तुम बन जाओ एक और
धीरू भाई अम्बानी !
Wednesday, August 27, 2008
मेरा मन - एक परिचय !
जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर -
तुम्हीं रेखांकित हो
अक्षर-अक्षर में -
तुम्हारी ही छवि बोलती है !
तुम्ही छंद हो, तुम्ही लय हो
यह पुस्तक, तुम्हारा समन्वय है !
शरीर तो एक आवरण है
जिसे प्यार और करुणा के रंग से
सँवारने का अथक प्रयास करती हूँ ......
ताकि कभी तुम स्वतः
पुस्तक खोलने पर बाध्य हो जाओ !
फिर.............
उम्मीद है, तुम्हारी आंखों की नमी
स्वाति के बूंद-सी
- मेरे माथे पर टपकेगी !
Saturday, August 23, 2008
बादलों वाली लड़की....
Wednesday, August 20, 2008
कुछ साज-तुम्हारे लिए......
डूबते चाँद का पता पूछो
एक मुसाफिर यहीं पे सोया है
नभ की खिड़की से सर टिका करके
जाने कौन सारी रात रोया है!
(2 )
तेरा ख्याल मेरे साथ लगकर सोया है
थपकियाँ देकर कहानी सुनाई है
लोरी गाकर चादर उढ़ाया है
पलकों और गालों को आँचल से पोंछा है
होठों पर संजीवनी रख दी है
शायद थोडी देर पहले यह रोया है
तेरा ख्याल साथ लगकर सोया है.....
(३)
जा रहा किस ओर तू
कुछ बोल पंछी
किस पिपासा को लिए ओ बावरा
दर्द जब इंसान हर पता नहीं
क्या हरेंगे फिर ये चंचल धवल बादल?
(४)
आओ आज की रात
हम दरवाजों को खुला छोड़ दें
खिड़कियों को बंद मत करें
हमारी अधीरता वह भांप ले
और लौट आए.............
Saturday, August 9, 2008
नन्हे पैरों के नाम.......
Monday, August 4, 2008
डर कैसा ?
Friday, August 1, 2008
ज़माना बदल गया ..........
Tuesday, July 29, 2008
प्रकोष्ठ का द्वार खोलो.........
शरीर और मन दोनों से हार कर
तुम्हारी देहरी पर बैठी हूँ
प्रकोष्ठ का द्वार खोलो.....
तमस में घिरी हूँ,कुछ दिखाई नहीं पड़ता
कहाँ जाऊं, किधर जाऊं के उलझन में घिरी हूँ
प्रभु कृपा करो
अपने प्रभामंडल का आलोक प्रसारित करो
प्रकोष्ठ ................
मेरे विनम्र निवेदन की अर्जी को
किसी पत्थर जड़ी मंजुषा में मत डालो
Friday, July 25, 2008
दाता !
Wednesday, July 16, 2008
मुक्ति??????
Saturday, July 12, 2008
बहुत दिनों बाद.....
तकिये पर सिर टिका कर लेटी
तो पलकें गिराने का मन नहीं किया....
ये कोई नई बात नहीं थी,
बात नई यह थी-
आंखों में डाली दवा बही
बित्ते भर के फासले पर
तुम हो लेटी हुई
और मुझे दिखा एक रंग और कूची
रंग वही,जो अक्सर सभाल कर रख देती हूँ
मैं चुप, तुम्हे देखती रही-
आख़िर रहा नहीं गया,मैं बुदबुदाई -
तुम्हे रंग दूँ?
एकटक तुम मुझे देखती रही कुछेक क्षण
फिर धीरे से कहा-
क्या मैं तुम्हे बेरंग दिखती हूँ?
मैंने मन ही मन में कहा-नहीं, ऐसी तो बात नहीं,
बस , मन में आया
महज बित्ते भर के फासले से तुम बोली-'ज़रूरत नहीं'
और अगर है भी,
तो मुझमें रंग भरनेवाले बहुत हैं....
सकुचाती हुई मैं बोली,फुसफुसाती सी
मालूम है मुझे,बस मन किया
मेरे पास तो रंग भी बहुत नहीं
और कूची भी सिर्फ़ एक है
तुम जानती भी हो
वह रंग-'फीको पड़े न बरु फटे '
नाम क्या बताना?
रहीम को तो जानती ही हो
-"रहिमन धागा.....मत जोडो चटकाए
जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए!"
तुम चुपचाप मुझे देखती रही-फिर बोली
'मुझे कुछ नहीं बोलना................'
बोलना था मुझे,
पर तुम पर निरर्थक परेशानी लाद दूँ
सोच कर चुप हो गई!
अचानक तुमने करवट ले ली-
मैंने अपनी छाती सहलाई!
ख़ुद से पूछा -'क्या मेरी छाती में दर्द हो रहा है?'
तो मरो तुम!
मूर्खाधिराज ! रंग पलट दो,कूची तोड़ दो
किसी पंख फटकारते पक्षी की ताकत लगाकर
तोड़ दो जिंदगी की तीलियाँ
और उड़ जाओ!
उठ कर मैंने रंग और कूची संभाल कर रख दी
कौन जाने कभी काम आए
और इसके सिवा अपने पास है भी क्या ?
अपनी बेबसी की लम्बी साँस लेकर
तकिये पर जब फिर लेटी
तो आंखों से पानी आने लगा
' रे मन मूरख जनम गंवायो'
Saturday, June 21, 2008
सुकून........
Friday, May 2, 2008
विस्मृति की चादर......
बड़ी घनी चादर-विस्मृति की,
और तहाकर मेरे सिरहाने धर गया
यह कहता हुआ-
ज़रूरत पड़ती है,तुमको भी होगी,
अपने ऊपर डाल लेना!
चादर को देखते हुए
मैंने कुछ कहना चाहा,
लेकिन मेरी आवाज़ को ठंड लग गई!
उसी दिन आधी रात को,
घटाएँ उठीं,बिजली कौंधी
हवा ने किवाड़ खटखटाये
और मैंने सुना-
दरवाजा खोल दो,
बूंदा बांदी शुरू हो गई है
भींग जाऊंगा
जल्दी करो,दरवाजा खोल दो।
बेसुध होकर मैं दौड़ी गई,
बंद दरवाज़े पर कान लगाया -
आवाज़ तो पहचान लूँ,
कहीं भ्रम तो नहीं!
मेरी अधीरता बढ़ती गई,
हवा किवाड़ पिटती रही,
पर वह आवाज़ बंद हो गई!
लौटकर आई तो काँप रही थी,
सिरहाने पड़ी थी चादर
समय की दी हुई-
विस्मृति की!
कि आराम पाने के लिए
Saturday, April 19, 2008
हुआ क्या है??????
Friday, April 11, 2008
टूटा हुआ आदमी भी,चलता है!
जो स्नेह करता हैं,
Wednesday, April 9, 2008
प्यार भरा उपहार.......
Thursday, April 3, 2008
बांसुरी.....
Sunday, March 30, 2008
प्यार..............?
Friday, March 28, 2008
दर्द का रिश्ता...
उन्होंने इस कविता को माँगा था, अपनी पत्रिका "नैन्सी " के लिए (हिन्दी दिवस विशेषांक) )
राष्ट्र कवि दिनकर ने लिखा हैं-
"प्रभु की जिसपर कृपा होती हैं
दर्द उसके दरवाज़े
दस्तक देता हैं....."
पंक्तियों के मर्म की जब परतें खुली,
अंतस के निविड़ अन्धकार मे,
किरणें कौंधी!
मैं अवाक्! निश्चेष्ट !
अप्रतिम छवि को
पलकों मे भरती रही....
भीतर से विगलीत आवाज़ आई -
"दाता तेरी करुणा का जवाब नही"
सहसा महसूस हुआ ,
दर्द का रिश्ता
हमारे अन्दर जीता हैं
दर्द की मार्मिक लय
आस-पास गूंजती हैं
दर्द का कड़वा धुआं ,
साँसों मे घुटन भरता हैं
ओह!
अनदेखा, गुमनाम होकर भी
अन्तर की गहराइयों मे बेबस बैठा
कोई फूट-फूट कर रोता हैं!
रिश्तों की डोर
मेरी आत्मा से बंधी हैं ,
अपना हो या और किसी का -
चाहे - अनचाहे मैं भंवर मे फँस जाती हूँ !
छाती की धुकधुकी बढ़ जाती हैं,
घबरा कर ,
अनदेखे , अनजाने को
बाँहों मे भर कर ,
सिसकियों मे डूब जाती हूँ !
लोग कहते हैं-
मुझे सोचने की बीमारी हैं,
मैं लोगों की बातों का उत्तर
नहीं दे पाती!
अचानक, ये मुझे क्या हो गया हैं,
शायद....
दर्द के इसी रिश्ते को लोग
"विश्व-बंधुत्व " की भावना कहते हैं,
तो देर किस बात की बंधु ?
दो कदम तुम चलो ,
दो कदम हम....
और इसी रिश्ते के नाम पर
पथ बंधु बन जाएँ !
जीवन की डगर को
सहयात्री बन काट लेंगे...
दर्द को हम बाँट लेंगे.....!
Tuesday, March 25, 2008
मैं चाहूंगी, तुमसे कभी मिलूं!
अगर तुमने कभी , नदी को गाते नही
प्रलाप करते हुए देखा हैं
और वहाँ कुछ देर ठहर कर
उस पर गौर किया हैं
तो मैं चाहूंगी तुमसे कभी मिलूं!
अगर तुमने पहाडों के
टूट - टूट कर बिखरने का दृश्य देखा हैं
और उनके आंखों की नमी महसूस की हैं
तो मैं चाहूंगी तुम्हारे पास थोडी देर बैठूं !
अगर तुमने कभी पतझड़ की आवाज़ सुनी हैं
रूदन के दर्द को पहचाना हैं
तो मैं तुम्हे अपना हमदर्द मानते हुए
तुमसे कुछ कहना चाहूंगी!
लेकिन मुझे यही नही पता , तुम हो कहाँ?
मैं तुमसे कहाँ मिलूं ?
अजनबी चेहरों की भीड़ से निकलकर
कभी सामने आओ...
तो मैं तुम्हारा स्वागत करूंगी!
ज़िंदगी प्रतिपल सरकती जा रही हैं
और मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा हैं
अँधेरा घिरते ही,
उम्मीद का दिया जला लेती हूँ
जाने कब, कहाँ पलकें बंद हो जाएं...
इससे पहले मैं चाहूंगी
तुमसे अवश्य मिलूं...
तुम्हे जी भर कर देख लूँ....
Sunday, March 23, 2008
हे प्रभु!
संबंधों का जाल
एक दिन
व्यर्थ सिद्ध होते हैं!
फिर, किसकी खोज में भटकता हैं मन?
ये चकित,चमत्कृत आँखें
विस्मय लिए डोलती हैं!
समझ नही पाता मन
क्या ढूँढती हैं!
कौन-सी चीज़ विद्युत सी चमक कर
व्याकुलता की ओर बढ़ाती है!
ख़ुद गाए गीतों से
या तुमसे कोई गीत सुनकर
क्यों मेरा 'मैं'
कतरे-कतरे में पिघलता हैं?
अन्तर में छिपा यह स्रोत कैसा हैं
जो कल-कल निनाद करता हैं?
हे प्रभु!
मेरे पल्ले आज तक
कुछ नहीं पड़ा !
Wednesday, March 19, 2008
तुम्हारे बदलने का प्रमाण!
कि मैं अपने को
बिना ज़मीन,बेघरबार,
नितांत अकेला महसूस करती हूँ!
तुम्हे नहीं पता,
मेर चारों ओर फैला अनंत आकाश,चाँद सितारे,धूप-छान्ही रंगों की आँख-मिचौली
सब अर्थ-हीन हो गए!
धरती पर खिले फूलों की गंध,
परायी लगने लगी
क्या यही प्रमाण पर्याप्त नहीं
कि मेरा अकेलापन
पारे की तरह अनियंत्रित हो गया!
नियति का यह दर्द नहीं
कि मेरे और तुम्हारे बीच
अलगाव हो गया!
किस सेतु की कल्पना करूँ?
जहाँ तुम्हारा मन मंत्रविद्ध हुआ
वहाँ अपनी पहचान बना कर
नहीं रह पाओगे!
मुझमे संवेदनाओं के सारे श्रोत सूख रहे हैं
मेरा अतीत
पत्थर हुए फूलों का संग्रहालय!
इस अंतहीन आकाश में उड़ते हुए
मेरे पंख थक चुके हैं!
कितना अजीब लगता है ये सोच कर-
मैं चक्रवात में घिरी हूँ
तुम्हारे आँखों में अनजाने संदर्भों के
गुलाब खिल रहे हैं!
तुमको कैसे घेर पायेगा
मेरी डूबी आँखों का दर्द?
तुम्हारे बदल जाने का प्रमाण
क्या यह पर्याप्त नहीं
कि मेरे पास यथार्थ और नाटक का
अंतर मिट गया!
शेष बच रहा है दृश्य...
केवल दृश्य!!
Sunday, March 16, 2008
प्रशस्ति के बादल!
बड़े मोहक लगते हैं-जब छा जाते हैं
मन-मयूर कल्पना के रंगीन पंखों को खोल
बेसुध-सा नृत्य कर उठता है
और हवा के रथ पर बैठ
धरा से अम्बर तक की
परिक्रमा करता है...
फिर-पलकों को मूँद
भावों को संजो
अंतर की प्रत्येक सूक्ष्म कलियों को
खिलते हुए,झूमते हुए
विहंसते हुए देखता है!
पर,प्रशस्ति के घनीभूत बादल
अमा की रात भी बन जाते हैं
गर्जन,तर्जन,उमड़न,घुमड़न-
बिजली की कटार लिए
जिस दिन बरसते हैं,दहशत फैला देते हैं!
धरा और अम्बर को मापने वाला मन
पथभ्रांत हो जाता हैं
भावों की लड़ी टूट जाती हैं
झूमती,विहंसती कलियाँ
बिखर कर धुल में मिल जाती हैं
शेष रह जाता हैं-
गंदला पानी
कीचड़ और कीचड़!!
Saturday, March 15, 2008
भुला देना...
तो तुम मना लेना...
मेरी गुस्ताखियों को दिल से
तुम भुला देना..
मैं कभी तुमसे अलग रह तो नहीं सकती
किसी कारण से बिछड़ जाऊं
तो तुम सदा देना..
जाने कितना तुमसे कहना है
सुनना है अभी
बातों के बीच मे सो जाऊं
तो तुम जगा देना..
थक गयी हूँ मैं बहुत दूर से आते आते
अब तेरी बाहों मे गिर जाऊं
तो तुम उठा लेना...
मेरा बचपन ही मेरे साथ रहा है अब तक
तुम भी आपने भोले बचपन को
न जुदा करना
गर कभी तुमसे रूठ जाऊं
तो तुम मना लेना...
मेरी गुस्ताखियों को दिल से तुम भूला देना.
Tuesday, March 11, 2008
दो पंछी
पिंजरे मैं बैठा कुछ गाता था
गाते-गाते लौह तीलियों पर
सर को टकराता था!
नीले नभ मैं उड़ता-फिरता
पंछी एक वहाँ आया
क्या संयोग था दोनों को,
इक-दूजे से मिलना भाया
मीठी वाणी में बनपाखी ने मनोहार किया उससे
चलो मीत तुम संग हमारे
साथ रहेंगे मिल-जुल के
पिंजरे का पंछी बोला-
मैं पाउँगा फिर ठौर कहाँ
कहाँ मिलेगा दाना-पानी
भटकूँगा मैं यहाँ-वहाँ
बंधू!तुम ही आ जाओ,
हर सुख-दुःख बाँट जियेंगे हम
हिम्मत अपनी दुगुनी होगी
मौत भी आये तो क्या गम
मीठे सुर में गाकर अपना गीत सुनाऊंगा तुमको
अपने मन का हाल सुनकर मीत बनाऊंगा तुमको...
बनपाखी उकता कर बोला - नहीं सीखना ऐसे गीत
गाकर जिसको मन बोझिल हो,
प्राणों में भर जाये टीस
आँसू पी कर होठों पर बरबस लाना फीकी मुस्कान
नहीं चाहिए ऐसा जीवन,नहीं चाहिए ऐसा गान...
तुम गाते रहते हो केवल,
औरों के रटवाये गीत
मैं अपनी धुन का मतवाला
गाता हूँ मस्ती के गीत!
तोड़ तीलियाँ बाहर आओ
ठौर नहीं ये कारागार
पंख पसारे,हँसते-गाते
मिलकर चलें क्षितिज के पार...
रुंधे कंठ से पिंजरे का पंछी बोला-
अब क्या होगा?
लिखा भाग्य में जो विधि ने
वह मन मारे सहना होगा.
मैं कैदी हूँ,आजादी का सपना भी अब क्या पालूँ
शक्तिहीन हैं पंख हमारे
संग तुम्हारे कहाँ चलूँ!
इस अम्बर के आँगन को,
मैं पार कहाँ कर पाउँगा
खो जाऊंगा अटक-भटक कर
डर से ही मर जाऊंगा
चाहो अगर तो तुम्ही मेरे पास रहो
मितवा मेरे!
शायद साथ तुमारे रह कुछ सीख सकूं धीरे-धीरे...
बनपाखी के चोंच हिले,मन भर आया थी मजबूरी
पिंजरे का पंछी बोला-हम मिटा न पाएंगे दूरी!
दूरी थी प्रारब्ध,बिचारे इसका लेख मिटा न सके
पंख रहे लाचार फडकते
पास-पास भी आ न सके
लौह-तीलियों को छूकर बनपाखी उडा गगन की ओर
पिंजरे का पंछी अकुलाया भींग गए नैनो के कोर!
Saturday, March 8, 2008
एक नयी अनुभूति
एक दिन हलके कदम
वह मेरे एकांत में आया
पास बैठा ,
मुझ पर दृष्टि डाली॥
ऐसी दृष्टि - जिसे देख कर लगा-
अंतर की खुली देहरी पर खड़ी हो कर
आत्मा मुझे अपलक निहार रही हैं!
मेरे रोम-रोम को सींचती एक स्निग्ध शीतलता
मेरे प्राणों में उतर गयी
जाने कैसे!
उसे मेरे सूने क्षणों से लगाव
मेरी अरूचि से रुचि
उदासीनता से आसक्तिपीड़ा से प्यार हो गया ,
संवेदना की कोमल उँगलियों से छूकर वह बोला...
आओ इधर हम बातें करें
-जीवन और जगत की
धरती- आकाश की आकर्षण-विकर्षण की
सृजन की, विनाश की सृष्टि के अनंत सौन्दर्य की...
ऐ,सुन रही हो?
ध्यानावस्थित मैंने हुंकारी भरी
भीतर की शून्यता मुखर हो उठी!
लोग कहते हैं -मैं कुछ सनकी हूँ
जीवन-जगत की ठोस कर्मभूमि पर पाँव रख कर
सच्चाई से कतराती हूँ...
उसने स्नेह भरे स्वर में टोका-
सर झुका कर क्या सोचती हो?
सुन रही हो न मेरी बातें?
'हाँ' या 'ना' मुझसे कुछ भी कहते नहीं बना
क्यूँकि सुनने के बजाय मैंने केवल कहा था !
वह उठ कर चला गया
नाराज़ हो कर नहीं,
फिर आने की बात कह कर
जानती हूँ, यह भ्रम नहीं सत्य हैं
बंधू,वह कहीं नहीं मिलेगा!
फिर भी क्रम जारी हैं...
मन न लगे, तो....
दिनों से छूटे फूटे काम को
मन लगा कर निपटा, ताज़गी मिलेगी...
किसी प्रिय साथी से हाथ मिला, आनंद मिलेगा...
यह भी नहीं -
तो कोई चित्र बना,
उसमे रंग भरने का काम कर...
समय कब कैसे निकल गया, मालूम नहीं होगा!
या फिर मेरी तरह कुछ लिख ,
मैं अक्सर बीते वक़्त को पास बुलाती हूँ,
उनसे बातें करती हूँ,
चाहे वह कोई शिकवा गिला हो
या प्यार मनुहार की कहानी -
उदी-उदी घटाओं का मादक सन्देश खुद पास आ जाता है...
और पास होता है ,
उस पार पहुचने का सम्मोहन !
वक़्त ,पल भर में गुज़र जाता है...
कब दिन आया और गुज़रा ,पता ही नहीं चलता....
रात को मैं इसी ख़ुशी को सिरहाने रख कर सो जाती हूँ-
आज गुज़र गया अब कल....
तुम भी ऐसा ही कुछ करो....
मन न लगे तो कुछ गाओ, कुछ लिखो, कुछ बातें करो...
Tuesday, February 19, 2008
फूल तोड़ना मना हैं!
शब्द नहीं मिलते कि,
तुम्हारे रूप की प्रशंसा करूँ ....
मखमली दूबों से भरे रास्ते,
करीने से कटी झाडियों के बीच रंग-बिरंगे - असंख्य फूल ,
चारों ओर बिखरी इत्र की सुवास ,
तुम्हारा चुम्बकीय आकर्षण...
सिर्फ मुझे ही नहीं, सबको खींचता हैं...
रोज़-रोज़ मेरे पाँव,उधर चल पड़ने को विवश हो जाते हैं जिधर तुम हो
पर .....!
रोक लेती हूँ खुद को
इसलिए कि तुम एक पार्क हो,
पार्क में भीड़ हैं ,ऊँचे-ऊँचे लोगों की॥
और मेरे पास सिर्फ दो साड़ीयाँ हैं ,
बारी-बारी उन्हें पहनती हूँ
अक्सर तुम तक आने लगूँ
तो लोग मुझे घूरने लगेंगे...
-यह कौन हैं?
मैं जानती हूँ वे आश्चर्यचकित होंगे
इसे भी पार्क का शौक हैं!
अफ़सोस! आँखों की भाषा मैं समझ लेती हूँ,
इसीलिए खुद को रोक लेती हूँ॥
अपनी ग्लानी....!
छोडो इसे ,
तुम्हारा महत्व भी तो कमेगा
तुम एक पार्क हो -
रूप,रस,गंध से भरे
रोज़-रोज़ तुम तक पहुचने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाउंगी
और डर भी लगता हैं,
क्यूंकि जगह-जगह लगी तख्तियों पर
बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हैं
-फूल तोड़ना मना हैं!
Monday, February 18, 2008
मुझे डर हैं!
लगता हैं , तुमने हमने गोया सबने
बुद्धि की परतें जमा ली हैं
सूत्र वाक्य बोलने लगे हैं
अखबारी नीति से विचार विनिमय करने लगे हैं
आधुनिक लिबासों में
आकृतियाँ बदलनी सीख ली हैं
दार्शनिक मुद्राओं में ,
सिद्धांत गढ़ने लगे हैं
पर.....
अंतर की कोमल अनुभूतियों का क्या होगा?
क्या भावनाओ की स्निग्ध पंखुडियां
मुरझा कर सूख नहीं जायेंगी?
लगता हैं ,
हम तेजी से भागने लगे हैं
एक-दूसरे के पीछे धक्के मारते,
मुँह चिढ़ाते अबोध बच्चों की तरह,
बाजी जीतने की उतावली में -
अनुसंधान हम करेंगे ,
श्रेय का सेहरा हम पहनेंगे ,
एथेंस के सत्यार्थी की तरह
-नग्न सत्य का उद्घाटन हम करेंगे....
पर , थके पाँव, फटी अंगुलियाँ ,
लहु-लुहान पैर लिए - कहाँ बैठेंगे!
उन्मादित शिराओं का रक्त
क्या हमें विक्षिप्त नहीं कर देगा?
क्या सत्य को उद्घाटित करने की दौड़ में
जिद्दी सत्यार्थी की तरह
हमारी आँखें फूट नहीं जायेंगी?
मुझे डर हैं !
हम असभ्य से सभ्य हो गए, अशिक्षित से शिक्षित
-मूर्खों की पंगत से निकलकर विद्वान हो गए
शक्लें बदल दी ,लिबास बदल डाला
बोल-चाल की कौन कहे हाव-भाव ,
मुद्राएं बदल डाली
अवसर पर बोलना,चुप रहना ,
कहकहे लगाना सीख गए पर भूल गए
-भीगी उदास पलकों की भी
कोई भाषा होती हैं
जिसे पढ़ने के लिए
आत्मा की गहराई में
प्रवेश करना पड़ता हैं
क्या हम ऐसा कर सकेंगे?
अगर नहीं ,
तो क्या उस कलाकार की
सृजन कला का अपमान नहीं होगा?
मुझे डर हैं !
एक दिन हम पंगु हो जायेंगे
ऐसा कोई वर्तमान न होगा
जो जुगनू सा चमक कर
झूठी रौशनी का भ्रम पैदा कर सके
भविष्य की बेबुनियाद योजनायें
दुर्बल शरीर में
उत्ताप भरते-भरते
खुद ठंडी पड़ जायेंगी
और हम आशाओं , आकांक्षाओं के
ज़र्द पड़े फूलों को देखते रहेंगे
फिर भी, दर्द बंटाने को
कोई हाथ नहीं आएगा
प्राणों की उर्जा ,
किसी स्नेह-हीन लौ सी तड़पती हुई ,
अतीत की कथाओं पर दम तोड़ देगी!!!!!!!!!!!!